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भगवती सूत्र-शः १६ उ. ५ गंगदत्त का पूर्वमव
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सित्ता मुणिसुव्वयस्स अरहओ अंतिया ओ सहमंववणाओ उजाणाओ पडिणिकावमड, पडिणिकम्वमित्ता, जेणेव हथिणापुरे णयरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छड, तेणेव उवागच्छित्ता विउलं अमणं पाणं जाव उवक्खडावेइ, उवक्वडावेत्ता मित्त-गाइ-णियग० जाव आमंतेड़, आमतेत्ता तओ पन्छा बहाए जहा पूरणे जाव जेट्टपुत्तं कुर्युवे ठावेड़।
कठिन शब्दार्थ-उववखडावेइ-पकाया, मम्कारित किया।
७ भावार्थ-श्री मुनिसुव्रत स्वामी ने उस गंगदत्त गाथापति को तथा उस महती परिषद को धर्म कथा कही यावत् परिषद् चली गई । श्री मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुन कर और अवधारण कर के गंगदत्त गाथापति हृष्ट-तुष्ट हो कर खड़ा हुआ और भगवान को वन्दना-नमस्कार कर के इस प्रकार बोला-"हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचनों पर श्रद्धा करता हूं यावत् आप के. उपदेश पर विश्वास करता हूं। हे भगवन् ! मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का अधिकार दे कर आप देवानुप्रिय के समीप प्रवजित होना चाहता हूँ।" श्री मुनिसुव्रत स्वामी ने कहा-हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो । धर्म कार्य में विलम्ब मत करो।
८-श्री मुनिसुव्रत स्वामी का कथन सुन कर गंगदत्त गाथापति हृष्ट-तुष्ट हुआ और भगवान् को वन्दना-नमस्कार कर सहस्राम्र वन उद्यान से निकल कर अपने घर आया। उसने विपुल अशन-पान यावत् तैयार करवा कर अपने मित्र, जाति, स्वजन आदि को निमन्त्रित किया, फिर स्नान कर के तीसरे शतक के दूसरे उद्देशक के पूर्ण सेठ के समान अपने बड़े पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित किया।
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