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भगवती सूत्र-श. १५ रोगोपशमन
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गिक्खमइ, पडिणिक्खमिता मेंढियगामं णयरं मझमझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जहा गोयमसामी जाव भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता समणस्म भगवओ महावीरस्म पाणिसि तं सव्वं संम गिस्विरइ । तएणं समणे भगवं महावीरे अमुच्छिए जाव अणझोववण्णे विलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं सरीरकोटुगंसि परिववइ । तएणं समणस्म भगवओ महावीरस्स तमाहारं आहारियस्स समाणस्स से विपुले रोगायंके खिप्पामेव उवसमं पत्ते. हटे जाए आरोग्गे, बलियसरीरे, तुट्टा समणा, तुट्टाओ समणीओ, तुट्टा सावया, तुट्ठाओ सावियाओ, तुट्टा देवा, तुट्ठाओ देवीओ, सदेवमणुयासुरे लोए तुढे 'हटे जाए समणे भगवं महावीरे' हटे० २।
भावार्थ-तत्पश्चात् वे सिंह अनगार रेवती गाथापत्नी के घर से निकल कर मेंढिक ग्राम नगर के मध्य होते हुए भगवान् के पास पहुँचे और गौतम स्वामी के समान यावत् आहार-पानी दिखाया। फिर वह सब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के हाथ में भली प्रकार रख दिया। इसके बाद श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मी (आसक्ति) रहित यावत् तृष्णा रहित, बिल में सर्प प्रवेश के समान उस आहार को शरीर रूप कोठे में डाल दिया। उस आहार को खाने के बाद श्रमण भगवान महावीर स्वामी का वह महापीडाकारी रोग शीघ्र ही शांत हो गया। वे हृष्ट, रोग रहित और बलवान् शरीर वाले हो गये । इससे समी श्रमण तुष्ट (प्रसन्न) हुए, श्रमणियां तुष्ट हुई, श्रावक तुष्ट हुए, श्राविकाएँ तुष्ट हुई, देव तुष्ट हुए, देवियाँ तुष्ट हुई और देव, मनुष्य, असुरों सहित समग्र विश्व सन्तुष्ट हुआ।
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