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भगवती सूत्र-श. १५ तिल का पौधा और गशालक को कुचेष्टा
गामाओ जयराओ कुम्मगाम जयरं संपट्टीए विहाराए । तस्स णं सिद्धत्थगामस्स णयरस्स कुम्मगामरस णयररस य अंतरा एत्थ णं महं एगे तिलथंभए पत्तिए पुप्फिए हरियगरेरिजमाणे सिरीए अईव अईव उपसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्टइ । तएणं से गोसाले मंखलि. पुत्ते तं तिलथंभगं पासइ, पासित्ता ममं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसिता, एवं वयासी-एस णं भंते ! तिलथंभए किं णिप्फजि. स्सइ णो णिफजिस्सइ ? एए य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता कहिं गच्छिहिंति, कहिं उववजिहिंति ?' तएणं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी -'गोसाला ! एस णं तिलथंभए णिप्फजिस्स, णो ण गिफजिस्सइ; एए य मत्त तिलपुष्फजीवा उदाइत्ता उदाइत्ता' एयस्स चेव तिलथंभगरस एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाइस्संति ।
कठिन शब्दार्थ-अप्पट्टिकायंसि-अप्प (अल्प शब्द का यहाँ अभाव अर्थ है), जब वर्षी नहीं हो रही थी, संपट्ठीए-जाने के लिए, तिलसंगलियाए-तिल की फली में।
भावार्थ ५-हे गौतम ! अन्यदा किसी दिन प्रथम शरद काल के समयजब वृष्टि नहीं हो रही थी, मैं गोशालक के साथ सिद्धार्थ ग्राम नामक नगर से चल कर कर्मग्राम नामक नगर की ओर जा रहा था, सिद्धार्थग्राम और कर्मग्राम के मध्य तिल का एक बड़ा पौधा था, जो पत्र-पुष्प युक्त, हरितपने से अत्यन्त शोभायमान था। गोशालक ने उस तिल के पौधे को देखा और मुझे बन्दन-नमस्कार कर पूछा-“हे भगवन् ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा या नहीं ? इन सात तिलों के फूल के जीव मर कर कहां जावेंगे, कहां उत्पन्न होंगे?" हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक को मैने इस प्रकार कहा-“हे गोशालक ! यह तिल का
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