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मगवती
सूत्र - श. १५ तिल का पौधा और गोशालक की कुचेष्टा
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को जैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम लब्ध हुआ है, प्राप्त हुआ है, अभिसनन्वागत हुआ है, वैसी ऋद्धि, युति यावत् पुरुषकारपराक्रम अन्य किसी भी तथारूप के श्रमण-माहण को लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत नहीं हुआ । इसलिये मेरे 'धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अवश्य यहीं होंगे ' - ऐसा विचार करके वह कोल्लाकसन्निवेश के बाहर और भीतर, सभी ओर मेरी खोज करने लगा । खोज करते हुए वह कोल्लाक सन्निवेश के बाहर के भाग में मनोज्ञ भूमि में मेरे पास आया ।
लिपुत्र गोशालक ने प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर मेरी तीन वार प्रदक्षिणा की यावत् नमस्कार करके इस प्रकार बोला- 'हे भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं। और में आपका शिष्य हूँ ।' हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की उस बात को सुना ( अर्थात् स्वीकार किया) । इसके पश्चात् हे गौतम ! में मंखलिपुत्र गोशालक के साथ प्रणीत भूमि में लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, सत्कार- अतत्कार का अनुभव करता हुआ और अनित्यता का चिन्तन करता हुआ विचरता रहा ।
विवेचन-- मूलपाठ में 'पणियभूमिए' पाठ दिया है, जिसका एक अर्थ टीकाकार ने 'भाण्ड विश्राम स्थान' दिया है और दूसरा अर्थ दिया है 'मनोज्ञ भूमि ।'
मूलपाठ में 'पडिसुणेमि' पाठ दिया है, जिसका अर्थ टीकाकार ने लिखा है'अभ्युपगच्छामि' अर्थात् 'मैंने गोशालक को शिष्यरूप से स्वीकार किया ।'
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इस प्रकार के अयोग्य को भगवान् ने शिष्यरूप से कैसे स्वीकार किया ? इसका समाधान यह है कि यह अवश्य ही भावी भाव था । अर्थात् यह इसी प्रकार होनहार था । इसलिये भगवान् ने उसे स्वीकार किया ।
तिल का पौधा और गोशालक की कुचेष्टा
५- तणं अहं गोयमा ! अण्णया कयाइ पढमसरदकालसमयंसि अप्पट्टिकायंसि गोसालेणं मंखलिपुचेणं सधि सिद्धत्थ
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