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भगवती सूत्र-श. १६ उ. ६ भगवान् के स्वप्न के फल
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वाले स्कोकिल (नर जाति के कोयल) को स्वप्न में देख कर जाग्रत हुए। (३) एक महान चित्र-विचित्र पंखों वाले स्कोकिल को स्वप्न में देख कर जाग्रत हुए । (४) स्वप्न में एक महान् सर्व रत्न मय मालायुगल को देख कर जाग्रत हुए। (५) स्वप्न में श्वेत वर्ण के एक महान गो-वर्ग को देख कर जाग्रत हुए। (६) चारों ओर से कुसुमित एक महान पदम सरोवर को देख कर जाग्रत हुए । (७) हजारों तरंगों और कल्लोलों से व्याप्त एक महासागर को अपनी भुजाओं से तिरे-ऐसा स्वप्न देख कर जाग्रत हुए। (८) जाज्वल्यमान तेजस्वी महान् सूर्य स्वप्न में देख कर जाग्रत हुए। (९) महान् मानुषोत्तर पर्वत को नील वंडूर्य मणि के समान अपने अन्तर भाग (आँतों) से चारों ओर से आवेष्टित-परिवेष्टित देख कर जाग्रत हुए। (१०) महान् मंदर (सुमेरु) पर्वत की मन्दर-चूलिका पर श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठे हुए अपने आप को देख कर जाग्रत हुए।
विवेचन-यहाँ मूलपाठ में-'छ उमत्थकालियाए अंतिम राइसि'-शब्द है। इन शब्दों का अर्थ किन्हीं प्रतियों में इस प्रकार किया है-"छद्मस्थावस्था की अन्तिम रात्रि में भगवान ने ये स्वप्न देखे थे । अर्थात जिस गत्रि में ये स्वप्न देखें थे, उस के बाद उसी दिन भगवान को केवलज्ञान हो गया था ।" किन्ही प्रतियों में ऐसा अर्थ किया है-“छद्मस्थावस्था की रात्रि के अन्तिम भाग में (पिछले पहर में )स्वप्न देखे थे।" यहाँ किसी रात्रि विशेष का निर्देश नहीं किया गया है। किन्तु महापुरुषों द्वारा देखे हुए शुभ स्वप्नों का फल तत्काल ही मिला करता है । अत: उपर्युक्त दोनों अर्थों में से पहला अर्थ ही मैक मालूम होता है।
भगवान् के स्वप्न के फल
१७-१ जणं समणं भगवं महावीरे एगं महं घोररूवदित्त. धरं तालपिसायं सुविणे पराजियं जाव पडिबुधे, तणं समणेणं
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