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भगवती सूत्र--ग. १५ भगवान् का राग और लोकापवाद
कठिन शब्दार्थ-पिहेंति-वन्द किये, आलिहंति-आलेग्बन किया, अवगुणंति-खोलते हैं।
भावार्थ-३४-तत्पश्चात आजीविक स्थविरों ने गोशालक को काल-धर्म प्राप्त हुआ जान कर हालाहला कुम्भारिन की दुकान के द्वार बन्द कर दिये, दुकान के बीच में (भूमि पर) श्रावस्ती नगरी का चित्र बनाया, फिर गोशालक के बायें पाँव को मञ्ज की रस्सी से बांधा। तीन बार उसके मुंह में थका और उस चित्रित की हुई श्रावस्ती नगरी के श्रृंगाटक यावत् राजमार्गों में उसे घसीटते हुए मन्द स्वर से उद्घोषणा करते हुए, इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक जिन नहीं, किन्तु जिन-प्रलापी हो कर यावत् विचरा है । यह श्रमण-घातक मंखलिपुत्र गोशालक यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल-धर्म को प्राप्त हुआ है । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वास्तव में जिन हैं और जिन-प्रलापा हो कर यावत् विचरते हैं।" इस प्रकार कह कर वे स्थविर, गोशालप. द्वारा दिलाई हुई शपथ से मुक्त हुए। तत्पश्चात् गोशालक की पूजासत्कार स्थिर रखने के लिये उसके पाँव की रस्सी खोली और दुकान के द्वार खोले । फिर गोशालक के शरीर को सुगन्धित गन्धोदक से स्नान कराया इत्यादि पूर्वोक्त कथनानुसार यावत् महाऋद्धि-सत्कार से मंखलिपुत्र गोशालक के मृत शरीर का निष्क्रमण किया।
भगवान् का रोग और लोकापवाद
३५-तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ सावत्थीओ णयरीओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता वहियो जणवयविहारं विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढिय. गामे णामं णयरे होत्था, वण्णओ। तस्स णं मेंढियगामस्स णय
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