________________
भगवतो सूत्र - श. १५ भगवान् का रोग और लोकापवाद
रस्स वहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं सालकोट्टए णामं are होत्था, वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ । तस्स णं सालकोगस्स णं चेइयस्स अदूरसामंते एत्थ णं महेंगे मालुयाकच्छए या होत्या, किहे कि होभासे जाव णिउरंबभूए, पत्तिए, पुफिए, फलिए, हरियगरेरिज्जमाणे, सिरीए अई अईव उवसोभेमाणे चिह्न । तत्थ णं मेंढियगामे णयरे रेवई णामं गाहावइणी परिवसर, अड्ढा जाव अपरिभूया । तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे जाव जेणेव मेंढियगामे णयरे जेणेव सालकोए चेइए जाव परिसा पडिगया ।
२४३२
भावार्थ - ३५ - किसी दिन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकल कर अन्य देशों में विचरने लगे। उस काल उस समय मेंढिक ग्राम नामक नगर था ( वर्णन ) । उस मेटिक ग्राम नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में शाल-कोष्ठक नामक उद्यान था ( वर्णन ) यावत् पृथ्वी शिलापट था । उस शाल- कोष्ठक उद्यान के निकट एक मालुका (एक वीज वाले वृक्षों का वन ) महा-कच्छ था । वह श्याम, श्याम कान्ति वाला यावत् महामेघ के समूह के समान था । वह पत्र, पुष्प, फल और हरितवर्ण से देदीप्यमान और अत्यन्त सुशोभित था । उस मेंढिक ग्राम नगर में रेवती नाम की गाथापत्नी रहती थी । वह आढ्य यावत् अपरिभूत थी । अन्यदा श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अनुक्रम से विहार करते हुए मेंटिक ग्राम नगर के बाहर शाल-कोष्ठक उद्यान में पधारे, यावत् परिषद् वन्दना कर के लौट
गई ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org