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भगवती सूत्र-ग. १६ उ. १ जीव और अधिकरण
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और तदुभयाधिकरणी भी है।
प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किसलिए कहा गया कि यावत् जीव तदुभयाधिकरणी भी है ?
उत्तर-हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा यावत् तदु मयाधिकरणी भी है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिये।
९ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों का अधिकरण आत्म-प्रयोग से होता है, पर-प्रयोग से होता है या तदुभय-प्रयोग से होता है ?
९ उत्तर-हे गौतम ! जीवों का अधिकरण आत्म-प्रयोग से भी होता है, पर-प्रयोग से भी होता है और तदुभय-प्रयोग से भी होता है।
प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ?
उत्तर-हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा यावत् तदुभय-प्रयोग से भी होता है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिये ।
विवेचन-हिंसादि पापकर्म के कारणभूत एवं दुर्गति के निमित्तभूत पदार्थों को 'अधिकरण' कहते हैं । अधिकरण के दो भेद हैं-१ आन्तरिक और २ वाह्य । शरीर, इन्द्रियां आदि आन्तरिक अधिकरण हैं । हल, कुदाली आदि शस्त्र और धन, धान्य आदि परिग्रह रूप वस्तुएँ बाह्य अधिकरण हैं। ये बाह्य और आन्तरिक अधिकरण जिन के हों, वह 'अधिकरणी' कहलाता है । इसलिये संसारी जीव के शरीरादि होने के कारण जीव अधिकरणी है और शरीरादि अधिकरणों से कथंचित् अभिन्न होने से जीव अधिकरण भी है । अतः सशरीरी जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है । अविरति की अपेक्षा से जीव, अधिकरण भी है और अधिकरणी भी । जो जीव विरत है, उसके शरीरादि होने पर भी वह अधिकरणी और अधिकरण नहीं है । क्योंकि उन पर उसका ममत्व-भाव नहीं है। जो जीव अविरत है, उसके ममत्व होने से वह अधिकरणी और अधिकरण कहलाता है ।
___ शरीरादि अधिकरण सहित जीव साधिकरणो कहलाता है । संसारी जीव के शरीर, इन्द्रिय आदि रूप आंतरिक अधिकरण तो सदा साथ ही रहते हैं। शस्त्रादि बाह्य अधिकरण निश्चित् रूप से सदा साथ नहीं भी होते । किंतु अविरति रूप ममत्व-भाव सदा साथ रहता है । इसलिये शस्त्र आदि वाह्य अधिकरण की अपेक्षा भी जीव साधिकरणो कहलाता है। संयती पुरुषों में अविरति का अभाव होने से शरीर आदि होते हुए भी उनमें साधिकरणपना
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