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________________ ' २५१० भगता सूत्र-श. १६ उ. १ जीव और अधिकरण णिवत्तिए वि तदुभयप्पयोगणिबत्तिए वि । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? उत्तर-गोयमा ! अविरतिं पडुच्च से तेणटेणं जाव तदुभयप्पयोगणिव्वत्तिए वि । एवं जाव वेमाणियाणं । कठिन शब्दार्थ-अविरति पडुच्च-जिसने मन, वचन और काया की दुष्प्रवृत्ति नहीं रोकी-संयमित नहीं की इसलिए । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव अधिकरणी है या अधिकरण ? ५ उत्तर-हे गौतम ! जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी ? उत्तर-हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी। ६ प्रश्न-हे भगवन ! नरयिक जीव अधिकरणी है या अधिकरण ? ६ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी। जिस प्रकार जीव के सम्बन्ध में कहा, उसी प्रकार नरयिक के विषय में भी जानना चाहिये, यावत् निरन्तर वैमानिक तक जानना चाहिये। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव साधिकरणी है या निरधिकरणी ? ७ उत्तर-हे गौतम ! जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? उत्तर-हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं । इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिये। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव आत्माधिकरणी है, पराधिकरणी है या तदुभयाधिकरणी है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! जीव आत्माधिकरणी भी है, पराधिकरणी भी है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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