________________
२५१२
भगवती सूत्र - श. १६ उ १ शरीर इन्द्रियां योग और अधिकरण
नहीं है ।
पापारम्भ में स्वयं प्रवृत्ति करना 'आत्माधिकरणी' कहलाता है । दूसरे से पापारम्भ करवाना 'पराधिकरणी' कहलाता है । स्वयं पापारम्भ करना और दूसरों से भी करवाना 'तदुभयाधिकरणी' कहलाता है । यह सब अविरति की अपेक्षा से है ।
हिंसादि पापकार्यों में प्रवृत्ति करने वाले मन के व्यापार से उत्पन्न अधिकरण 'आत्मप्रयोग निर्वर्तित' कहलाता है । दूसरे को हिंसादि पाप कार्यों में प्रवृत्ति कराने से उत्पन्न हुआ वचनादि अधिकरण 'परप्रयोग निर्वर्तित' कहलाता है । आत्मा द्वारा और दूसरे को प्रवृत्ति कराने द्वारा उत्पन्न हुआ अधिकरण 'तदुभयप्रयोग निर्वर्तित' कहलाता है ।
स्थावरादि जीवों में वचनादि का व्यापार नहीं होता है, तथापि उनमें अविरति भाव की अपेक्षा से परप्रयोग निर्वर्तितादि अधिकरण कहा गया है ।
शरीर इन्द्रियाँ योग और अधिकरण
१० प्रश्न – कइ णं भंते ! सरीरगा पण्णत्ता ?
१० उत्तर - गोयमा ! पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा - ओरालिए जाव कम्मए । ११ प्रश्न - क
णं भंते! इंदिया पण्णत्ता ?
११ उत्तर - गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, तं जहा- सोईदिए जाव फासिंदिए ।
१२ प्रश्न - कवि णं भंते! जोए पण्णत्ते ?
१२ उत्तर - गोयमा ! तिविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा -मणजोए व जोए कायजोए ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org