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भगवती सूत्र-श. १६ उ. ४ नै गयिकों की निर्जरा की भ्रमणों से तुलना
वासेण वा वासेहिं वा वाससएण वा णो खवयंति, जावइयं चउत्थभत्तिए-एवं तं चेव पुव्वभणियं उच्चारेयव्वं जाव वासकोडाकोडीए वा णो खवयंति' ?
६ उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे जुण्णे जराजज्ज रियदेहे सिढिलतयावलितरंगसंपिणद्धगत्ते पविरलपरिसडियदंतसेढी उण्हाभिहए तण्हाभिहए आउरे झुझिए पिवासिए दुबले किलंते एगं महं कोसंबगंडियं सुक्कं जडिलं गंठिल्लं चिक्कणं वाइधं अप. त्तियं मुंडेण परसुणा अवक्कमेज्जा, तएणं से पुरिसे महंताई महंताई सदाई करेइ, णो महंताई महंताई दलाइं अवदालेइ, एवामेव गोयमा ! णेरइयाणं पावाई कम्माइं गाढीकयाई चिक्कणीकयाई-एवं जहा छट्ठसए जाव णो महापज्जवसाणा भवंति । से जहाणामए केइ पुरिसे अहिकरणिं आउडेमाणे महया० जाव णो महापज्जवसाणा भवंति।
___कठिन शब्दार्थ-जुण्णे-जीर्ण (वृद्ध), झंझिए-भूखा, जडिलं-जटिल, जराजज्जरियदेहे-जरा (वृद्धावस्था) से जर्जरित देह वाला, सिढिल तयावलितरंगसंपणिद्धगत्ते-शिथिल होने के कारण त्वचा में जिसके सिलवटें पड़ गई, ऐसे गात्र वाला, पविरलपरिसडियदंतसेढी-जिसके कई दाँत गिर कर मुंह में थोड़ से दाँत रहे हैं, उण्हाभिहए -उष्णता मे व्याकुल, आउरे-आतुर, पिवासिए-प्यासा, किलंते-क्लाँत, तण्हाभिहए-प्यास से पीड़ित ।
भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि 'अन्नग्लायक श्रमणनिर्ग्रन्थ जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म नैरयिक जीव, नरक में एक वर्ष में या अनेक वर्षों में भी नहीं खपा सकता है और चतुर्थ-भक्त करने वाला श्रमण
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