SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गवती मूत्र-ग. १६ उ. ४ नयिकों की निजंग की धमणां से तुलना ५३३ १ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । २ प्रश्न-हे भगवन् ! चतुर्थभक्त (एक उपवास) करने वाला श्रमणनिर्ग्रन्थ जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म नैरयिक जीव नरक में सौ वर्षों में, अनेक सौ वर्षों में या हजार वर्षों में खपाता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। ... ३ प्रश्न-हे भगवन् ! छठ-भक्त करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्म क्षय करता है, उतने कर्म नरयिक, नरक में एक हजार वर्षों में, अनेक हजार वर्षों में या एक लाख वर्ष में क्षय करता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! अष्टम-भक्त करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म नैरयिक, नरक में एक लाख वर्षों में, अनेक लाख वर्षों में या एक करोड़ वर्ष में नष्ट करता है ? __४ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । ५ प्रश्न-हे भगवन् ! दशम-भक्त करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म नैरयिक जीव, नरक में एक करोड़ वर्ष में, अनेक करोड़ वर्षों में या कोटाकोटि वर्षों में खपाता है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । विवेचन-'अन्नग्लायक' का अर्थ वह साधु है जो भूख से इतना आतुर हो जाता है कि पहर दिन आवे अर्थात् गृहस्थों के घर में रसोई वन जाय तब तक भी भूख सहने में असमर्थ बन जाता है । इसलिये गृहस्थों के घर से पहले दिन का बना हुआ बासी कूरादि (अन्न, भात-पके हुए चावल) ला कर प्रातःकाल ही खाता है, कूरगडुक मुनि की तरह । ऐसे मुनि को 'अन्नग्लायक' कहते हैं । ६ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'जावइयं अण्णगिलायए समणे जिग्गंथे कम्मं गिजरेइ एवइयं कम्मं गरएसु रहया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy