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भगवती सूत्र - दा १५ शिष्यत्व ग्रहण
गाथापति के यहाँ आया। उसने विजय गाथापति के घर में बरसी हुई वसुधारा, पांच वर्ण के फूलों को और विजय गाथापति के घर से बाहर निकलते हुए मुझे देखा । गोशालक प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुआ। वह मेरे पास आया और तीन वार प्रदक्षिणा करके वन्दन - नमस्कार किया और इस प्रकार बोला- " हे भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और में आपका धर्म-शिष्य हूँ ।" हे गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की इस बात का आदर नहीं किया, स्वीकार भी नहीं किया और मौन रहा । तत्पश्चात् हे गौतम! में राजगृह नगर से निकल कर नालन्दा के बाहरी भाग की तन्तुवायशाला में आया और दूसरा मासक्षमण स्वीकार कर लिया ।
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तणं अहं गोयमा ! दोच्चं मासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमामि, तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमित्ता णालंदं बाहिरियं मज्झमज्झेणं जेणेव रायगिहे णयरे जाव अडमाणे आनंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुष्पविट्टे । तरणं से आणंदे गाहावई ममं एजमाणं पासइ - एवं जहेव विजयस्स, णवरं ममं विउलाए खजगविहीए 'पडिला भेस्सामि' त्ति तुझें, सेसं तं चेव, जाव तच्चं मासखमण उवसंपजित्ता णं विहरामि ।
भावार्थ - इसके पश्चात् दूसरे मासक्षमण के पारणे के समय, तन्तुवाय शाला से निकला और आनन्द गाथापति के घर में प्रवेश किया । आनन्द गायापति ने मुझे आता हुआ देखा, इत्यादि सारा वृत्तान्त विजय गाथापति के समान है, विशेषता यह है कि 'मैं विपुल खण्ड - खाद्य ( मीठा खाजा ) भोजन सामग्री से प्रतिलाभूंगा' - ऐसा विचार कर वह आनन्द गाथापति सन्तुष्ट हुआ, इत्यादि पूर्ववत् । यावत् मैंने तीसरा मासक्षमण स्वीकार कर लिया ।
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