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भगवती सूत्र-श. १५ सर्वानुभूति अनगार का देहोत्सर्ग
सणाहिं उद्धंसेइ, उद्धंसेत्ता उच्चावयाहिं णिव्छभंणाहिं णिभंछेइ, उ. २ णिभंछेत्ता उच्चावयाहिं णिच्छोडणाहिं, णिच्छोडेइ, उ० २ णिछोडेता एवं वयासी–ण? सि कयाइ, विणट्टे सि कयाइ, भटे सि कयाइ, णटु-विण?-भटे सि कयाइ, अज ण भवसि णाहि ते ममाहिंतो सुहमत्थि'।
कठिन शब्दार्थ-आउसणाहि-आक्रोश वचनों से, उद्धंसणाहि-कुलादि को होन बताने रूप आक्रोश वचन, गिमंछणाहि-कठोर वचनों से, णिच्छोडणाहि-कर्कश वचन ।
भावार्थ-१५-जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार कहा, तब गोशालक अत्यंत कुपित हुआ और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को अनेक प्रकार के अनुचित एवं आक्रोश पूर्ण वचनों से तिरस्कार करने लगा। वह अनेक उद्घर्षणा (पराभव) युक्त वचनों से अपमान करने लगा। अनेक प्रकार की निर्भर्त्सना द्वारा निर्भत्सित करने लगा। अनेक प्रकार के कर्कश वचनों से अपमानित करने लगा। यह सब करके गोशालक बोला-'मैं मानता हूं कि कदाचित् आज तू नष्ट हुआ है, कदाचित् आज तू विनष्ट हुआ है, कदाचित् आज तू भ्रष्ट हुआ है, कदाचित् आज तू नष्ट-विनष्ट और भ्रष्ट हुआ है। आज तू जीवित नहीं रह सकता। मेरे द्वारा तेरासुख (शुभ) होने वाला नहीं है।'
सर्वानुभूति अनगार का देहोत्सर्ग
१६-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीररस अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभई णाम अणगारे पगइभद्दए, जाव विणीए, धम्मायरियाणुरागेणं एयमढे असदहमाणे उट्ठाए उढेइ,
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