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नगवतां सुत-शः १९ गोगोलक द्वारा भगवान् का रिकार
गोसाला ! अणपणे मंते अण्णमिति अप्पाणं उपलभसि तं मा एवं गोसाला ! णारिहसि गोमाला ! सच्चेव ते सा छाया णो अण्णा' ।
कठिन शब्दार्थ-तेणए-स्तेन (चोर), गामेल्लए हि-ग्रामवामियों से, गडुंग ( खड्डा ), दरि - गुफा, णिण्णं - निम्न ( शुल्क मरोवर आदि), तणसूएण-तृणंसूक अर्थात् तृणांग्र ( तिनके के अग्रभाग से ).. अताणं आवरेता अपने को छुपात्रे, अप्पच्छष्णे - अप्रच्छन्न, अनिल के.ढका हुआ नहीं |
भावार्थ - १४ - (गोशालक के उपर्युक्त कथन पर ) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा - " हे गोशालक ! जिस प्रकार कोई चोर, ग्रामवासियों के द्वारा पराभव पाता हुआ, खड्डा, गुफा, दुर्ग (दुःख पूर्वक - कठिनता से जाने योग्य स्थान ) निम्न (नीचा स्थान ) पर्वत या विषम स्थान at प्राप्त नहीं करता हुआ, एक ऊन बड़े रोम ( केश) से, शण के रोम से, कपास के रोम से और तृण के अग्रभाग से अपने को ढक कर बैठ जाय और वह नहीं ढका हुआ भी अपने-आपको ढका (छुपा) हुआ माने, अप्रच्छन्न होते हुए भी अपने आपको छिपा हुआ माने, लुका हुआ नहीं होते हुए भी अपने आपको लुका हुआ माने, अपलापित (गुप्त) नहीं होते हुए भी अपने आपको गुप्त माने, उसी प्रकार हे गोशालक ! तू अन्य ( दूसरा ) नहीं होते हुए भी अपने आपको अन्य बता रहा है । हे गोशालक ! तू ऐसा मत कर । तू ऐसा करने के योग्य नहीं है। तू वही है, तेरी वही प्रकृति है । तू अन्य नहीं है ।"
गोशालक द्वारा भगवान् का तिरस्कार
१५ - तप से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेण भगवया महावीरेणं एवं चुत्ते समाणे आमुरुते ५ समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहि आउस, उच्चा० २ आउसित्ता उच्चावयाहिं उद्धं
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