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भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक को चोर म मा ।।
और उपालम्भ पूर्वक व्यंग वचनों से कहने लगा कि-'तुम मुझे अपना धर्मान्तेवामी कहते हो, तो बहुत अच्छी बात है, परन्तु आपको ज्ञात होना चाहिये कि-आपका धर्मान्तेवासी मंखलिपुत्र गोशालक तो शुभ भावों में काल करके देवलोक में उत्पन्न हुआ है। मैं आपका धर्मान्तेवासी नहीं हूँ। में तो कौण्डिन्यायन गोत्रीय उदायी हूँ और गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर का त्याग करके, मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश किया है । यह मेरा मातवां परिवृत्त परिहार है।'
उपरोक्त बात कह कर. गोशालक ने अपने सिद्धान्तानुसार मोक्ष जाने वालों का क्रम बतलाया है । इस प्रसंग में उसने अपने सिद्धान्तानुसार महाकल्प, संयूथ, शर प्रमाण, मानस शर प्रमाण, उद्धार आदि का वर्णन किया है । इस विषय में टीकाकार और चूर्णिकार ने लिखा है कि "गोशालक का सिद्धान्त अस्पष्ट एवं संदिग्ध होने से ज्ञात नहीं होता। इसलिए केवल शब्दार्थ मात्र लिखा है।" वास्तव में यह सब गोगालक की कल्पना मात्र है। अतः उसकी अर्थ संगति तो हो हो कैसे सकती है ?
गोशालक की चौर से सदृशता
१४-तएणं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-'गोसाला ! से जहाणामए तेणए सिया, गामेल्लएहिं परम्भ माणे प० २ कत्थ य गइडं वा दरिं वा दुग्गं वा णिण्णं वा पव्वयं वा विसमं वा अणस्माएमाणे एगेणं महं उण्णालोमेण वा सणलोमेण वा कप्पासपम्हेण वा तणसूएण वा अत्ताणं आवरित्ता णं चिडेजा से णं अणावरिए आवरियमिति अप्पाणं मण्णइ, अप्पच्छण्णे य पच्छण्णमिति अप्पाणं मण्णइ अणिलुक्के णिलुक्कमिति अप्पाणं मगइ, अपलाए पलायमिति अप्पाणं मण्णइ, एवामेव तुमं पि
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