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भगवती सूत्र-श. १५ गागालक का आगमन और दाम्भिक प्रलाप
हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि, अन्जुण २ विपजहित्ता । गोसालम्स मंखलि. पुत्तस्स सरीरगं 'अलं थिर धुवं धारणिजं मीयसह उण्हसहं खुहा. सहं विविहदसमसगपरीसहोवसग्गसहं थिरमघयण त्ति कटु तं अणुप्पवितामि, नं० २-प्पविमिता सोलस वासाइं इमं सत्तमं पउट्ट. परिहारं परिहरामि । एवामेव आउसो कासवा ! पगेणं तेत्तीसेणं वासमएणं सत्त पउट्टपरिहारा परिहरिया भवंतीति मक्खाया, तं मुटु णं आउमो कासवा ! ममं एवं क्यासी, साहु, णं आउसो कासवा ! ममं एवं वयासी-'गोसाले मखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासि' त्ति गोसाले० २।
भावार्थ-सातवां परिवत्त परिहार इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुंभारिन को दुकान में गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर का त्याग कर के मंखलिपुत्र गोशालक का शरीर समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण करने योग्य, शीत को सहन करने वाला, उष्णता को सहन करने वाला, क्षुधा को सहन करने वाला, डांस-मच्छर आदि के विविध परोषह और उपसर्गों को सहन करने वाला तथा स्थिर संहनन वाला है, ऐसा समझ कर उपमें प्रवेश किया और इसमें सोलह वर्ष तक इस सातवें परिवृत्त-परिहार का उपभोग करता हूं। इस प्रकार हे आयुष्यमन् काश्यप ! मैंने एक सौ तेतीस वर्षों में ये सात परिवृत्त-परिहार किये हैं। ऐसा मैंने कहा है । इसलिये हे आयुष्यमन् काश्यप ! तुम मुझे ठीक कहते हो। हे आयुष्यमन् काश्यप ! तुम मुझे खूब अच्छा कहते हो कि 'मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है। मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है।'
विवेचन-मंखलिपुत्र गोशालक अत्यन्त कुपित होता हुआ भगवान् के पास आया
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