________________
भगवती सूत्र -ग. .५ मर्वानुभूति अनगार का देहात्मग
उ०२ उद्वित्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, ते० २ गच्छित्ता गोसालं मखलिपुत्तं एवं क्यासी-जे वि ताव गोसाला ! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं णिप्तामेइ, से वि ताव वंदइ णमंमड़, जाव कल्लाणं मंगलं देवयं पज्जुवासह, किमंग पुण तुमं गोसाला ! भगवया चेव पवाविए, भगवया चेव मुंडाविए, भगवया चेव सेहाविए, भगवया चेव सिक्वाविए, भगवया चेव बहुस्सुईकए, भगवओ चेव मिच्छं विप्पडिवण्णे, तं मा एवं गोसाला ! णारिहसि गोसाला ! सच्चेव ते सा छाया णो अपणा । तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते सब्वाणुभइणामेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ सव्वाणुभई अणगारं तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरामिं करेइ । तएणं से गोमाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभई अणगारं तवेणं तेएणं एगा. हच्च कूडाहच्च भासरासिं करित्ता दोच्चं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसइ. जाव मुहं णत्थि ।
कठिन शब्दार्थ-पाईण जाणवए-पूर्व जनपद (देश) के. पवाविए-प्रव्रजित किया, मुंडाविए-मुण्डित किया, सेहाविए-व्रत पालने में शिक्षित किया, भासरासि-राख का ढेर ।
भावार्थ-१६ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पूर्वदेश में उत्पन्न सर्वानुमति अनगार था, जो प्रकृति का भद्र और विनीत था। वह अपने धर्माचार्य के अनुराग से गोशालक की बात पर अश्रद्धा करता हुआ उठा और गोशालक के पास जा कर इस प्रकार कहने लगा-“हे गोशालक !
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org