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भगवती सूत्र - १५ गोशालक चरित्र.
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भगवती श्रुत देवता को नमस्कार हो ।
भावार्थ-उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी । वर्णन ।
श्रावस्ती नगरी के उत्तर-पूर्व में कोष्ठक नामक चैत्य ( उद्यान ) था । वर्णन | उस श्रावस्ती नगरी में आजीविक ( गोशालक ) मत की उपासिका हालाहला नामक कुम्भारण रहती थी । वह ऋद्धि सम्पन्न यावत् अपराभूत थी । उसने आजीविक के सिद्धान्त का अर्थ (रहस्य) प्राप्त किया था, अर्थ पूछा था, अर्थ का farar fear था, उसकी अस्थि और मज्जा, प्रेम और अनुराग द्वारा रंगी हुई थी । है आयुष्यमन् ! आजीविक का सिद्धान्त रूप अर्थ, यही खरा अर्थ है और यही परमार्थ है, शेष सब अनर्थ हैं। इस प्रकार वह आजीविक के सिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करती हुई रहती थी ।
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तेणें काले तेणं समर्पणं गोसाले मंखलिपुत्ते चउच्चीसवासपरियाए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघ संपरिवडे आजीवियसमपर्ण अप्पाणं भावेमाणे विहरड । तपणं तस्स गोसा लस्स मंखलिपुत्तस्स अण्णया कयाइ इमे छ दिसाचरा अंतियं पाउ भविथा, तं जहा - १ साणे २ कलंदे ३ कण्णियारे ४ अच्छिदे ५ अग्गिवेसायणे ६ अज्जुणे गोमायुपुत्ते । तए णं ते छ दिसाचरा अट्टविहं पुब्वयं मग्गदसमं सएहिं सएहिं मइदंसणेहिं णिज्जुहंति, णिज्जुहित्ता गोसा मंखलिपुत्तं उवट्टाइंस ।
भावार्थ-उस काल उस समय में चौबीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाला मंखलिपुत्र गोशालक, हालाहला नामक कुम्भारण की कुम्भारापण ( मिट्टी के बर्तनों की दुकान) में आजीविक संघ से परिवृत होकर आजीविक सिद्धांत से
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