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२५३६ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ४ नैरयिकों की निर्जरा को श्रमणा में तुलना
सिप्पोवगए एगं महं सामलिगंडियं उल्लं अजडिलं अगंठिल्लं अचिक्कणं अवाइधं सपत्तियं तिक्खेण परसुणा अकमेजा, तएणं से णं पुरिसे णो महंताई महंताई सदाई करेइ, महंताई महंताई दलाई अबदालेइ, एवामेव गोयमा ! समणाणं णिग्गंथाणं अहा. वादराई कम्माइं सिढिलीकयाइं णिट्टियाई कयाइं जाव खिप्पामेव परिविद्वत्थाई भवंति जावइयं तावइयं जाव महापजवसाणा भवंति । से जहा वा केइ पुरिसे सुकतणहत्थगं जायतेयंसि पक्खिवेजा एवं जहा छट्टसए तहा अयोकवल्ले वि जाव महापज्जवसाणा भवंति, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ-'जावइयं अण्णइलायए समणे णिग्गंथे कम्मं णिजरेइ-तं चेव जाव वासकोडाकोडीए वा णो खवयंति ।
® से भंते ! सेवं भंते ! त्ति । जाव विहरइ *
॥ सोलसमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-णिउणसिप्पोवगए-निपुण शिल्पी-कलाकार ।
भावार्थ-जिस प्रकार कोई तरुण बलवान यावत् मेधावी और निपुण शिल्पकार पुरुष, शाल्मली वृक्ष की गीली, अजटिल, अगंठिल (गांठ रहित) अचिक्वण (चिकनास रहित) सीधी और आधार वाली गण्डिका पर तीक्ष्ण कुल्हाड़े द्वारा प्रहार करे, तो वह जोर-जोर से शब्द किये बिना ही (सरलता से) उसके बड़े-बड़े टुकड़े कर देता है, इसी प्रकार हे गौतम ! जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने अपने कर्मों को यथा-स्थूल शिथिल यावत् निष्ठित किये हैं यावत् वे कर्म
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