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भगवती मूत्र-स. १७ उ ७ ऊलोकस्य पृथ्वीकायिक का मरण-समुद्घात २६३५
काइओ सव्वपुढवीसु उववाएयव्वो जाव अहेसत्तमाए ।
* सेवं भंते ! मेवं भंते ! ति *
।। सत्तरसमे सए सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ -उववाएयव्यो-उपपात कहना चाहिए। ।
भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, सौधर्म-कल्प में मरण-समुद्घात करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी में पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे आहार करते हैं या पहले आहार करते हैं और पीछे उत्पन्न होते हैं ?
. १ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के, पृथ्वीकायिक जीवों का सभी कल्पों में यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में उत्पाद कहा गया, उसी प्रकार सौधर्म-कल्प के पृथ्वीकायिक जीवों का सातों नरक पृथ्वियों में यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक उत्पाद जानना चाहिये । इसी प्रकार सौधर्म-कल्प के पश्वीकायिक जीवों के समान सभी कल्पों में यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के पृथ्वीकायिक जीवों का सभी पृथ्वियों में यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक उत्पाद जानना चाहिये।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
॥ सतरहवें शतक का सातवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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