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भगवती सूत्र-श. १५ विमलवाहन का अनायेपन
वा सेयं, ज णं देवाणुप्पिया ! समणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्छं विप्पडि. वण्णा, तं विरमंतु णं देवाणुप्पिया ! एयस्स अटुस्स अकरणयाए ।
कठिन शब्दार्थ-विण्णवित्तए-निवेदन करें, अण्णमण्णस्स-अन्योन्य (एक दूसरे गे) विरमंतु-निवृत्त होवें (रुकें)।
भावार्थ-उस समय शतद्वार नगर में बहुत से माण्डलिक राजा, युवराज यावत् सार्थवाह आदि परस्पर इस प्रकार कहेंगे-“हे देवानुप्रियो ! विमलवाहन राजा ने श्रमण-निर्ग्रथों के साथ अनार्यपन स्वीकार किया है यावत् कितने ही श्रमणों को देश से बाहर निकालता है। अतः हे देवानुप्रियो ! यह अपने लिये श्रेयस्कर नहीं है और न विमलवाहन राजा तथा इस राज्य, राष्ट्र, बल (सेना), वाहन, पुर, अन्तःपुर और देश के लिये ही श्रेयस्कर है। इसलिये हे देवानुप्रियो ! विमलवाहन राजा को इस विषय में निवेदन करना, अपने लिये श्रेयस्कर है । इस प्रकार विचार कर तथा एक दूसरे से निश्चय कर, वे विमलवाहन राजा के पास पहुंचेंगे और दोनों हाथ जोड़ कर विमलवाहन राजा को जय-विजय शब्दों से सम्मानित कर के वे इस प्रकार कहेंगे-“हे देवानुप्रिय ! श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ आप, अनार्यपन का आचरण करते हुए उन पर आक्रोश करते हैं यावत् देश से बाहर निकालते हैं। हे देवानुप्रिय ! यह कार्य आपके लिये, हमारे लिये और इस राज्य यावत् देश के लिये श्रेयस्कर नहीं है । आपका श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ अनार्यपन का आचरण उचित नहीं है । इसलिये हे देवानुप्रिय ! आप इस दुराचरण को बन्द कीजिये।
४३-तएणं से विमलवाहणे राया तेहिं बहूहिं राईसर० जाव सत्थवाहप्पभिईहिं एयमद्वं विण्णत्ते समाणे ‘णो धम्मो त्ति ‘णो तवो' त्ति मिच्छाविणएणं एयमढे पडिसुणेहिति । तस्स णं सयदुवारस्स णयरस्स वहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं सुभूमि
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