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भगवती सूत्र-श. १६ उ. ८ लोक के अन्त में जीव का अस्तित्व
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एकेन्द्रिय जीव के देश होते हैं । १ अथवा-एकेन्द्रिय के बहुत देश और वेइन्द्रिय का एक देश, २ अथवा-एकेन्द्रिय के बहुत देश और बेइन्द्रिय के बहुत देश, ३ अथवा-एकेन्दिय के बहुत देश और बेइन्द्रियों के बहुत देश-ये तीन भंग होते हैं। क्योकि रत्नप्रभा में बेइन्द्रिय होते हैं और वे एकेन्द्रियों की अपेक्षा थोड़ होते हैं। इसलिये उसके ऊपर के चरमांत में बेइन्द्रिय का एक देश अथवा बहुत देश सम्भवित हैं । इसी प्रकार तेइन्द्रिय से लेकर अनिन्द्रिय तक प्रत्येक के तीन-तीन भंग, जीव-देश आश्रयी कहना चाहिये। वहाँ जो जीव के प्रदेश हैं, वे अवश्य एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं । १ अथवा-एकेन्द्रिय के बहुत प्रदेश और बेइन्द्रिय के बहुत प्रदेश हैं । २ अथवा-एकेन्द्रिय जीव के बहुत प्रदेश और वेइन्द्रियों के बहुत प्रदेश हैं। इस प्रकार ते इन्द्रिय से लेकर अनिन्द्रिम तक के भी दो-दो भंग जानने चाहिये । वहां रूपी अजीव के चार भेद और अरूपी अजीव के सात भेद होते हैं, क्योंकि वह समय-क्षेत्र के भीतर होने से वहाँ अद्धा-समय (काल) भी होता है ।
रत्नप्रभा के चरमान्त आश्रयी देश विधयक भंगों में असंयोगी एक और द्विक संयोगी पन्द्रह, ये कुल सोलह भंग होते हैं । तथा प्रदेशापेक्षा असंयोगी एक और द्विक संयोगी दस, य कुल ग्यारह भंग होते हैं ।
जिस प्रकार लोक के नीचे के चरमान्त का कथन किया गया है, उसी प्रकार रत्नप्रभा के नीचे के चरमान्त का भी कथन करना चाहिये । विशेषता यह है कि लोक के नीचे के चरमान्त में जीव-देश सम्बन्धी बेइन्द्रियादि के मध्यम भंग रहित दो-दो भंग कहे गये हैं, परन्तु यहां पञ्चेन्द्रिय के तीन भंग कहना चाहिये और पञ्चेन्द्रिय के अतिरिक्त शेष जीवों के दो-दो भंग कहने चाहिये । क्योंकि रत्नप्रभा के नीचे के चरमान्त में देव रूप पञ्चेन्द्रिय जीवों के गमनागमन से पञ्चेन्द्रिय का एक देश और पञ्चेन्द्रिय के बहुत देश सम्भवित होते हैं । इसलिये यहां पचेंन्द्रिय के तीन भंग कहने चाहिये । बेइन्द्रिय आदि तो रत्नप्रभा के नीचे के चरमान्त में मरण-समुद्घात से जाते हैं, तभी उनका संभव होने से वहाँ उनका देश ही सम्भवित हैं, बहुत देश सम्भवित नहीं, क्योंकि रत्नप्रभा के नीचे का चरमान्त एक प्रतर रूप होने से बहुत देशों का हेतु नहीं बन सकता ।
रत्नप्रभा के पूर्वादि चार चरमान्तों के समान शर्कराप्रभा आदि छह नरक, बारह देवलोक, नव ग्रेवेयक, पांच अनुत्तर विमान और ईषत्प्रारभारा पृथ्वी, इनके पूर्वादि चारों चरमान्तों का कथन करना चाहिये ।।
जिस प्रकार रत्नप्रभा के नीचे का चरमान्त कहा गया है, उसी प्रकार शर्कराप्रभादि
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