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भगवती सूत्र-श. १६ उ. ८ लोक के अन्त में जीव का अस्तित्व
विमाणा तहा अणुत्तरविमाणा वि, ईसिप-भारा वि ।
भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व चरमान्त में जीव हैं, इत्यादि प्रश्न ।
६ उत्तर-हे गौतम ! वहां जीव नहीं है । जिस प्रकार लोक के चार चरमान्त कहे गये हैं, उसी प्रकार रत्नप्रभा के चार चरमान्तों के विषय मे यावत उत्तर के चरमान्त तक कहना चाहिये । दसवें शतक के प्रथम उद्देशक में कथित विमला दिशा की वक्तव्यता के अनुसार इस रत्नप्रभा के उपरिम चरमान्त के विषय में सम्पूर्ण कहना चाहिये । रत्नप्रभा पृथ्वी के अधस्तन चरमान्त का कथन, लोक के अधस्तन चरमान्त के समान कहना चाहिये । विशेषता यह है कि जीवदेशों के विषय में पञ्चेंद्रियों के तीन भंग कहने चाहिये । शेष सभी उसी प्रकार कहना चाहिये । रत्नप्रभा पृथ्वी के चार चरमान्तों के समान शर्कराप्रभा पृथ्वी के भी चार चरमान्त कहने चाहिये । रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे के चरमात के समान शर्कराप्रभा का ऊपर का और नीचे का चरमांत कहना चाहिये । इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिये । सौधर्म देवलोक यावत् अच्युत देवलोक के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिये । ग्रेवेयक विमानों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहना चाहिये । विशेषता यह है कि उनमें ऊपर के और नीचे के चरमान्त के विषय में, देश के सम्बन्ध में पञ्चेन्द्रियों में भी बीच का भंग नहीं कहना, शेष सभी पूर्ववत् कहना चाहिये । वेयक विमानों के समान अनुत्तर विमान और ईषत्प्रारभारा पृथ्वी का कथन भी करना चाहिये।
विवेचन-रत्नप्रभा के पूर्वादि चार चरमान्त का कथन लोक के चार चरमान्त के समान कहना चाहिये । दसवें शतक के प्रथम उद्देशक में जिस प्रकार विमला दिशा के सम्बन्ध में कहा गया, उसी प्रकार रत्नप्रभा के ऊपर के चरमान्त के विषय में कहना चाहिए। यथा-वहाँ जीव नहीं हैं, क्योंकि वह एक प्रदेश के प्रतर रूप होने से उसमें जीव नहीं समा सकते, परन्तु जीव-देश और जीव-प्रदेश रह सकते हैं। उम में जो जंव के देश हैं, बे अवश्य
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