SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती मूत्र-श. ५३ उ. २ देवावामों की मंच्या विस्तारादि २१६१ इत्यादि भेद दूसरे शतक के सातवें देवोद्देशक के अनुसार यावत् 'अपराजित और सर्वार्थसिद्ध' पर्यन्त कहना चाहिये। ___३ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के कितने लाख आवास कहे गये हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार देवों के चौसठ लाख आवास कहे गये हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के वे आवाम संख्यात योजन विस्तार वाले हैं या असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं ? उत्तर-हे गौतम ! संख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं और असंख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं। __ ४ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमारों के चौसठ लाख आवासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले असुरकुमारवासों में एक समय में कितने असुरकुमार उत्पन्न होते हैं, यावत् कितने तेजोलेशी उत्पन्न होते हैं ? कितने कृष्णपाक्षिक उत्पन्न होते हैं ? ४ उत्तर-इस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के विषय में किये गये प्रश्न के समान प्रश्न करना चाहिये और उसका उत्तर भी उसी प्रकार समझ लेना चाहिये। परन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ दो वेदों सहित (स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी) उत्पन्न होते हैं, नपुंसकवेदी उत्पन्न नहीं होते । शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए । उद्वर्तना के विषय में भी उसी प्रकार जानना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि असंज्ञो भी उद्वर्तते हैं। अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी नहीं उद्वर्तते। शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिये। सत्ता के विषय में पहले कहे अनुसार ही कहना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि वहां संख्यात स्त्रीवेदी और संख्यात पुरुषवेदी हैं, नपुंसकवेदी बिलकुल नहीं हैं। क्रोधकषाय वाले कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते । यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं। इसी प्रकार मानकषायी और मायाकषायी के विषय में भी कहना चाहिये। लोभकषायी संख्याता होते हैं। शेष पूर्ववत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy