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________________ भगवती सूत्र -श. १३७ १० छानस्थिक समुद्घात भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! छामस्थिक समुद्घात कितनी कही गई है १ उत्तर - हे गौतम ! छाद्मस्थिक समुद्घात छह कही गई है । यथावेदना समुद्घात, इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के छत्तीसवें 'समुद्घात' पद के अनुसार छाद्मस्थिक समुद्घात, यावत् आहारक समुद्घात तक कहनी चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकहकर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं । २२७३ विवेचन - वेदना आदि के साथ एकाकार हुए आत्मा का कालान्तर में उदय में आने वाले वेदनीयादि कर्म-प्रदेशों को, उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर, प्रबलता पूर्वक उनकी घात (निर्जरा) करना 'समुद्घात' कहलाता है । छाद्मस्थिक समुद्घात छह हैं । वेदना समुद्घात - वंदना के कारण होने वाली समुद्घात को वेदना समुद्घात' कहते हैं । यह असातावेदनीय कर्म मे होती है । तात्पर्य यह है कि वेदना से पीड़ित जीव, अनन्तानन्त कर्म-स्कन्धों मे व्याप्त अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है और उनमे मुख, उदर आदि छिद्रों एवं कान तथा स्कन्ध आदि अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई और चौडाई में शरीर परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक ठहरता है । उस अन्तर्मुहूर्त में प्रभूत असातावेदनीय कर्म- पुद्गलों की निर्जरा करता है । कषाय समुद्घात - क्रोधादि के कारण होने वाली समुद्घात को 'कषाय समुद्घात' कहते हैं । यह कषाय मोहनीय कर्म के आश्रित होती है, अर्थात् तीव्र कषाय के उदय मे व्याकुल जीव, अपने आत्म-प्रदेशों को बाहर निकाल कर और उनसे मुख, उदर आदि के छिद्रों और कान, स्कन्ध आदि के अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई और चौड़ाई में शरीर परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और प्रभूत कषाय कर्म रूप पुद्गलों की निर्जरा करता है । Jain Education International मारणान्तिक समुद्घात - मरण काल में होने वाली समुद्घात को 'मारणान्तिक समुद्घात' कहते हैं । यह अन्तर्मुहूर्त शेष आयुष्यकर्म के आश्रित होती है अर्थात् कोई जीव आयुकर्म अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर अपने आत्म-प्रदेशों को बाहर निकाल कर उनसे मुख, उदरादि के छिद्रों को और कान, स्कन्धादि के अन्तरालों को पूर्ण करके विष्कम्भ (घेरा ) और मोटाई में शरीर परिमाण एवं लम्बाई में कम से कम अपने शरीर के अंगुल के असंख्यातवें For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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