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________________ २२७४ भगवता मूत्र-स. १६ उ. १० छानस्थिक समुद्घात भाग परिमाण और अधिक से अधिक एक दिशा में असंख्यात योजन क्षेत्र को व्याप्त करता है और प्रभूत आयुकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। वैक्रिय समुद्घात-वैक्रिय के आरम्भ करने पर जो समुद्घात होती है, उसे 'वैकिय ममुद्घात' कहते हैं । वह वैक्रिय शरीर नामकर्म के आथित होती है । अर्थात् वैक्रिय, लब्धिवाला जीव, वैक्रिय करते समय अपने प्रदेशों को अपने शरीर से बाहर निकाल कर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में संख्येय योजन परिमाण दण्ड निकालता है और पूर्व-बद्ध वैक्रिय-शरीर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है । तेजस समुद्घात-यह तेजोलेश्या निकालते समय में रहने वाले तेजस शरीर नाम कर्म के आश्रित होती है अथति तेजोलेश्या की स्वाभाविक लब्धिवाला कोई साधु आदि. सात आठ कदम पीछे हटकर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्र में संख्यय योजन परिमाण जीव-प्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकाल कर क्रोध के विषयभूत जीवादि को जलाता है और तैजस नामकर्म के प्रभूत पुद्गलों की निर्जर। करता है। आहारक समुद्घात-आहारक शरीर का आरम्भ करने पर होने वाली ममुद्घात 'आहारक समुद्घात' कहलाती है । वह आहारक नामकर्म के आश्रित होती है ! अर्थात् आहारक शरीर की लब्धिवाला अनगार, आहारक शरीर की इच्छा करता हुआ विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण ओर लम्बाई में संख्यय योजन परिमाण अपने आत्म-प्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकाल कर यथा-स्थूल पूर्ववद्ध आहारक नामकर्म के प्रभूत पुद्गलों की निर्जरा करता है। प्रज्ञापना सूत्र के छत्तीसवें पद में 'केवली समुद्घात' का भी वर्णन है । किन्तु यहाँ छाद्मस्थिक समुद्घातों का वर्णन होने से उसका वर्णन नहीं किया गया है । ॥ तेरहवें शतक का दसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ तेरहवां शतक समाप्त ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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