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भगवती सूत्र-श. १४ उ. ५ देव की पुद्गल सहायी विशेष प्रवृत्ति
उनकी अप्रशस्त विहायोगति रूप अथवा नरक गति रूप अनिष्ट गति होती है । नरक में रहने रूप अथवा नरक आयु रूप अनिष्ट स्थिति होती है। शरीर का बेडौल होना-अनिष्ट लावण्य होता है । अपयशः और अपकीत्ति रूप अनिष्ट यशः-कीत्ति होती है । वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ नैरयिक जीवों का उत्थानादि वीर्य, विशेष अनिष्ट, निन्दित होता है।
एकेन्द्रिय जीवों में शब्द, रूप, गन्ध और रस नहीं होते । इसलिये वे उपर्युक्त दस स्थानों में से छह स्थानों का अनुभव करते हैं। वे शुभ और अशुभ क्षेत्र में उत्पन्न हो सकते हैं । और उनके साता और असाता दोनों के उदय का संभव है । इसलिये उनमें इष्ट और अनिष्ट दोनों प्रकार के स्पर्शादि होते हैं । यद्यपि एकेन्द्रिय जीव स्थावर हैं, इसलिये उनमें स्वाभाविक रूप से गमन-गति का संभव नहीं है, तथापि उनमें पर-प्रेरित गति होती है। वह शुभाशुभ रूप होने से इष्टानिष्ट गति कहलाती है । मणि में इप्ट लावण्य होता है और पत्थर में अनिष्ट लावण्य होता है । इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों में इष्टानिष्ट लावण्य होता है । स्थावर होने से एकेन्द्रिय जीवों में उत्थानादि प्रकट रूप से दिखाई नहीं देते, किन्तु सूक्ष्म रूप से तो उनमें उत्थानादि है ही। तथा पूर्वभव में अनुभव किये हुए उत्थानादि के संस्कार के कारण भी इनमें उत्थानादि होते हैं और वे इप्टानिष्ट होते हैं । ऐसा जानना चाहिये।
देव की पुद्गल सहायी विशेष प्रवृत्ति
१२ प्रश्न-देवे णं भंते ! महिड्ढीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू, तिरियपव्वयं वा तिरियभित्तिं वा उल्लं. घेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा ?
१२ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समढे। . १३ प्रश्न-देवे णं भंते ! महिड्ढिीए जाव महेसवखे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू , तिरिय० जाव पल्लंघेत्तए वा ?
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