________________
भगवती सूत्र-श. १४ उ. ५ देव की पुद्गल सहायी विशेष प्रवृति
२३१९
१३ उत्तर-हंता पभू।
*
सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति
के
॥ चोदसमसए पंचमो उद्देसो समत्तो ॥
कठिन शब्दार्थ-महेसक्खे-महामुख वाला, अपरियाइत्ता-बिना प्राप्त (ग्रहण) किये ।
भावार्थ-१२ प्रश्न- हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना तिर्छा पर्वत को अथवा तिछौँ भीत को उल्लंघने (एक वार उल्लंघने) में और प्रलंघने (बार-बार उल्लंघन करने) में समर्थ है ?
१२ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं ।
१३ प्रश्न-हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके तिर्छा पर्वत को या तिझे भीत को उल्लंघन-प्रलंघन करने में समर्थ है ?
१३ उत्तर-हाँ, गौतम ! समर्थ है ।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं ?
विवेचन-भवधारणीय शरीर से व्यतिरिक्त पुद्गल, 'बाहर के पुद्गल' कहलाते हैं । उन पुद्गलों को ग्रहण किये बिना कोई भी देव, मार्ग में आने वाले पर्वत या पर्वत-खण्ड तथा भीत आदि का उल्लंघन नहीं कर सकता। वाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें उल्लंघन कर सकता है । .
। चौदहवें शतक का पांचवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org