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भगवती सूत्र - १४ उ ५ जीवों के इष्टानिष्ट संदादि २३१७
११- पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दस ठाणाई पञ्चणुभवमाणा विहरति तं जहा - इट्टाणिट्टा सद्दा, जाव परत्रकर्म एवं मणुस्सा वि वाणमंतर - जोइमिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा ।
कठिन शब्दार्थ लावण्ण-लावण्य ।
भावार्थ - ५ - नैरयिक जीव, दस स्थानों का अनुभव करते हैं । यथा१ अनिष्ट शब्द, २ अनिष्ट रूप, ३ अनिष्ट गन्ध, ४ अनिष्ट रस, ५ अनिष्ट स्पर्श, ६ अनिष्ट गति, ७ अनिष्ट स्थिति, ८ अनिष्ट लावण्य, ९ अनिष्ट यश:कीfa और १० अनिष्ट उत्थान कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम ।
६ - असुरकुमार, दस स्थानों का अनुभव करते हैं। यथा-१ इष्टशब्द, २ इष्टरूप, यावत् १० इष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार- पराक्रम । इस प्रकार यावत् स्तनित कुमारों तक कहना चाहिये ।
७- पृथ्वीकायिक जीव, छह स्थानों का अनुभव करते हैं । इष्टानिष्ट स्पर्श, २ इष्टानिष्ट गति, यावत् ६ इष्टानिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना चाहिये । ८- बेइन्द्रिय जीव, सात स्थानों का अनुभव करते हैं। यथा-१ इष्टानिष्ट रस, इत्यादि शेष एकेन्द्रियों के समान कहना चाहिये ।
९ - इन्द्रिय जीव, आठ स्थानों का अनुभव करते हैं । यथा - १ इष्टानिष्ट गन्ध, शेष बेइन्द्रियों के समान कहना चाहिये ।
१० - चतुरिन्द्रिय जीव, नौ स्थानों का अनुभव करते हैं । यथा - १ इष्टानिष्ट रूप, शेष तेइन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिये ।
११- पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव, दस स्थानों का अनुभव करते हैं । यथा - १ इष्टानिष्ट शब्द यावत् १० इष्टानिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम । इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में भी कहना चाहिये । असुरकुमारों के समान वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक तक कहना चाहिये । विवेचन - नैरयिक जीव, अनिष्ट शब्द आदि दस स्थानों का अनुभव करते हैं ।
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