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भगवती सूत्र-श १७ उ. २ धर्मी अधर्मी और धर्माधर्मी
धम्माधम्मे वि ठिया।
३ प्रश्न-णेरइआणं-पुच्छा।
३ उत्तर-गोयमा ! णेरइया णो धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया, णो धम्माधम्मे ठिया । एवं जाव चरिंदियाणं ।
४ प्रश्न-पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं-पुच्छा।
४ उत्तर-गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णो धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया, धम्माधम्मे वि ठिया । मणुस्सा जहा जीवा । वाणमंतर-जोइसिय माणिया जहा णेरड्या ।
कठिन शब्दार्थ-चक्किया-समर्थ है, आसइत्तए-बैठे।
भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! संयत, प्राणातिपातादि से विरत, जिसने पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किया है, ऐसा जीव, धर्म में स्थित है ? असंयत, अविरत और पापकर्म का प्रतिघात एवं प्रत्याख्यान नहीं करने वाला जीव, अधर्म में स्थित है ? और संयतासंयत जीव धर्माधर्म में स्थिर होता है ?
१ उत्तर-हां, गौतम ! संयत, विरत जीव, धर्म में स्थित होता है यावत संयतासंयत जीव धर्माधर्म में स्थित होता है।
प्रश्न-हे भगवन् ! धर्म में, अधर्म में और धर्माधर्म में कोई जीव बैठने यावत् सोने में समर्थ है ?
उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि यावत् समर्थ नहीं है ?
उत्तर-हे गौतम ! संयत, विरत और पापकर्म का प्रतिघात एवं प्रत्याख्यान करने वाला जीव, धर्म में स्थित होता है और धर्म को ही स्वीकार कर विचरता है । इसी प्रकार असंयत, अविरत और पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान नहीं करने वाला जीव, अधर्म में स्थित होता है और अधर्म को ही
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