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भगवती सूत्र श. १६ उ. २ देवेन्द्र की भाषा
जो ये श्रमण-निर्ग्रन्थ विचरते हैं, उनको में अवग्रह को अनुज्ञा देता हूँ। ऐसा कह कर शक्रेन्द्र, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके उस दिव्य यान विमान पर बैठ कर जिधर से आया था, उधर वापिस चला
गया ।
विवेचन - अवग्रह का अर्थ है - स्वामित्व । उसके पाँच भेद बतलाये गये हैं । यथादेवेन्द्रावग्रह - शकेन्द्र और ईशानेन्द्र, इन दोनों का स्वामीपन अनुक्रम से दक्षिण लोकाई और उत्तर लोकार्द्ध में है । इसलिये उनकी आज्ञा लेना - 'देवेन्द्रावग्रह' कहलाता है । राजावग्रहभरनादि क्षेत्रों के छह खण्डों पर चक्रवर्ती का अवग्रह होता है । गाथापति ( गृहपति) का अवग्रह जैसे माण्डलिक राजा का अपने अधीन देश पर अवग्रह होता है । सागारिक अवग्रहजैसे गृहस्थ का अपने घर पर अवग्रह होता है । साथमिक अवग्रह- समान धर्म वाले साधु, परस्पर साधर्मिक कहलाते हैं, उनका पाँच कोस तक क्षेत्र में साधर्मिकावग्रह होता है । अर्थात् शेष-काल में एक माम और चातुर्मास में चार महिने तक साधर्मिकावग्रह होता है । दाई कोस दक्षिण की ओर, दाई कोस उत्तर की ओर, इस प्रकार पाँच कोस और ढ़ाई कोस पूर्व की ओर तथा हाई कोस पश्चिम की ओर, इस प्रकार पाँच कोस का अवग्रह होता है |
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देवेन्द्र की भाषा
५ प्रश्न - 'भंते' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदन मंस, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - 'जं णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया तुम्भे णं एवं वदइ, सच्चे णं एसमडे ?
५ उत्तर - हंता सच्चे ।
६ प्रश्न - सक्के णं भंते! देविंदे देवराया किं सम्माबाई, मिच्छावाई ?
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