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________________ भगवती सूत्र - १३ उ. १ नरकावासों की संख्या विस्तारादि १२ प्रश्न - हे भगवन् ! तमःप्रभा पृथ्वी में कितने नरकावास कहे गये हैं, इत्यादि प्रश्न | २१५२ १२ उत्तर - हे गौतम! पाँच कम एक लाख नरकावास कहे गये हैं । शेष सभी वर्णन पंकप्रभा के समान कहना चाहिये । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! अधः सप्तम पृथ्वी में अनुत्तर और बहुत बड़े कितने महा नरकावास कहे गये हैं, इत्यादि प्रश्न । १३ उत्तर - हे गौतम! अनुत्तर और बहुत बड़े पांच महा नरकावास कहे गये हैं । यावत् ( काल, महाकाल, रौरव, महारौरव) अप्रतिष्ठान । प्रश्न - हे भगवन् ! वे नरकावास संख्यात योजन विस्तार वाले हैं या असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं ? उत्तर - हे गौतम ! मध्य का अप्रतिष्ठान नरकावास संख्यात योजन विस्तार वाला है और शेष चार नरकावास असंख्यात योजन के विस्तार वाले हैं। १४ प्रश्न - हे भगवन् ! अंधः सप्तम पृथ्वी के पांच अनुत्तर और बहुत बड़े यावत् महा नरकावासों में से संख्यात योजन के विस्तार वाले अप्रतिष्ठान नरकावास में एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न । १४ उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार पंकप्रभा के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये, विशेषता यह है कि यहाँ तीन ज्ञान वाले न तो उत्पन्न होते हैं और न उद्वर्तते हैं, परन्तु इन पांचों नरकावासों में रत्नप्रभा पृथ्वी आदि के समान तीनों ज्ञान वाले पाये जाते हैं । जिस प्रकार संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में कहा, उसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में भी कहना चाहिये । इसमें संख्यात के स्थान पर 'असंख्यात' पाठ कहना चाहिये । विवेचन-असंज्ञी जीव प्रथम नरक में ही उत्पन्न होते हैं, उससे आगे नहीं । इसलिये द्वितीयादि नरकों में उनका उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता, ये तीनों बातें नहीं कहनी चाहिये । लेश्याओं के विषय में जो विशेषता कही गई है, वह प्रथम शतक के द्वितीय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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