________________
भगवती सूत्र-ग. १७ उ. १ औदयिकादि भाव
२६०३
वाले भी होते हैं। इसी प्रकार दण्डक क्रम से पृथ्वीकायिक से यावत् मनुष्य तक कहना चाहिये । इसी प्रकार वैक्रिय शरीर के विषय में भी एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा से दो दण्डक कहने चाहिये, किंतु जिन जीवों के वैक्रिय शरीर हो, उन्हीं के विषय में कहना चाहिये। इसी प्रकार यावत् कार्मण शरीर तक कहना चाहिये। इसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय से यावत् स्पर्शनेन्द्रिय तक तथा इसी प्रकार मनयोग, वचनयोग और काययोग के विषय में, जिसके जो हो, उसके उस विषय में कहना चाहिये। ये सभी मिल कर एकवचन और बहुवचन सम्बन्धी छन्वीस दण्डक कहने चाहिये ।
विवेचन-औदारिक गरीर आदि बनाता हुआ जीव जब तक दूसरे जीवों को परिताप आदि उत्पन्न नहीं करता, तब तक उसे कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी, ये तीन क्रियाएँ लगती हैं। जव दूसरे जीवों को परितापादि उत्पन्न करता है, तब पारितापनिको सहित चार क्रियाएं लगती हैं और जब जीव की हिंसा करता है, तब प्राणातिपातिकी सहित पांच क्रियाएँ लगती हैं ।
पांच शरीर, पांच इन्द्रियाँ और तीन योग, इनके एक वचन और बहुवचन सम्बन्धी छब्बीस दण्डक होते हैं।
औदयिकादि भाव
१६ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! भावे पण्णत्ते ?
१६ उत्तर-गोयमा ! छविहे भावे पण्णत्ते, तं जहा-१ उदइए, २ उवसमिए जाव ६ सण्णिवाइए।
१७ प्रश्न-से किं तं उदइए ? १७ उत्तर-उदइए भावे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-उदइए, उद
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org