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________________ भगवती सूत्र - १४ उ ८ अव्याबाध देवशक्ति वा उप्पाराजा, छविच्छेदं पुण करेह, एसहमं च णं पक्खिवेज्जा । कठिन शब्दार्थ-छिदिया - छेदन करके, भिदिया-भेदन करके, चुणिया-चूर्ण करके, कोट्टिया - कूट कर, पाणिणा- हाथ से, असिणा - तलवार मे । भावार्थ - १७ प्रश्न - हे भगवन् ! अव्याबाध देव, अव्याबाध देव ( किसी को पीड़ा नहीं पहुँचाने वाले ) कहे जाते हैं ? १७ उत्तर - हाँ गौतम ! कहे जाते 1 प्रश्न- हे भगवन् ! वे ' अव्याबाध देव ' क्यों कहलाते हैं ? उत्तर - हे गौतम ! प्रत्येक अव्याबाध देव, पुरुष के आँख की एक पलक पर दिव्य देवद्ध, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव और बत्तीस प्रकार की दिव्य नाटक विधि बतलाने में समर्थ है। इससे वे उस पुरुष को स्वल्पमात्र भी दुःख नहीं होने देते और न उसके अवयव का छेदन करते हैं। इस प्रकार सूक्ष्मतापूर्वक नाटय-विधि बतला सकते हैं । इस कारण हे गौतम! वे 'अव्याबाध देव' कहलाते हैं । १८ प्रश्न - हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र, अपने हाथ में ग्रहण की हुई तलवार से किसी पुरुष का मस्तक काट कर कमण्डलु में डालने में समर्थ है ? १८ उत्तर - हां गौतम ! समर्थ है । प्रश्न - हे भगवन् ! वह उस मस्तक को कमण्डलु में किस प्रकार डालता है ? उत्तर - हे गौतम! शत्र, उस पुरुष के मस्तक को छेदन (खण्ड-खण्ड ) करके, भेदन ( कपड़े की तरह चीर) कर, कूट कर (ऊखल में तिलों की तरह कूट कर ) चूर्ण कर (शिला पर लोढ़ी से गन्ध-द्रव्यादि पीसा जाता है, उसी प्रकार चूर्ण करके) कमण्डलु में डालता है । इसके बाद वह उस मस्तक के अवयवों को एकत्रित करता है और पुनः मस्तक बना देता है। इस प्रक्रिया में पुरुष के मस्तक का छेदन करते हुए भी उस पुरुष को किञ्चित् भी पीड़ा नहीं होने देता । इस प्रकार सूक्ष्मतापूर्वक क्रिया करके वह मस्तक को कमण्डलु में डालता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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