________________
भगवती सूत्र-स. १६ उ. २ कर्म का कत्ता चतन्य है
२५२५
पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला · तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, णत्थि अचेयकडा कम्मा ममणाउसो ! दुट्टाणेमु, दुसेजासु, दुण्णिसीहियासु तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, णस्थि अचेय. कडा कम्मा समणा उसो ! आयके से वहाए होड़, संकप्प से वहाए होइ, मरणंते मे वहाए होइ तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति पत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो ! से तेणटेणं जाव कम्मा कज्जति, एवं णेरड्याण वि, एवं जाव वेमाणियाणं । .
के सेवं भंते ! मेवं भंते ! ति । जाब विहरइ ॐ
॥ सोलसमए सए वीओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-चेयकडा-चैतन्यकृत, अचेयकडा-अचैतन्यकृत, बोंदिचिया-शरीर रूप में संचित होना, आयंके-आतंक ( रोग), वहाए-वध के लिए।
भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं या अचैतन्यकृत ?
- १० उत्तर-हे गौतम ! जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते।
प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते ?
उत्तर-हे गौतम ! जीवों के जो पुद्गल आहार रूप से, शरीर रूप से और कलेवर रूप से उपचित (सञ्चित) हुए हैं, वे पुद्गल उस उस रूप से परिणत होते हैं। इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणो ! कर्म अचैतन्यकृत नहीं हैं। वे पुद्गल दुःस्थान रूप से, दुःशय्या रूप से और दुनिषद्या रूप से तथा तथा रूप से परिणत होते हैं । इसलिये हे आयुष्मन् श्रमणो ! कर्म अचैतन्यकत नहीं है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org