________________
२५२६
भगवती सूत्र-स. १६ उ. : कर्म-बन्ध
वे पुद्गल आतंक रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते है । वे संकल्प रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते है । वे पुद्गल मरणान्त रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिये होते हैं । इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणों ! कर्म अचैतन्यकृत नहीं हैं। इसी प्रकार नरयिकों से लेकर वैमानिकों तक कहना चाहिए।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन--जिस प्रकार जीवों के आहारादि रूप से संचित किये हुए पुद्गल, आहारादि रूप से परिणत होते हैं, उसी प्रकार कर्म रूप से संचित किये हुए पुद्गल, कर्म रूप से परिणत होते हैं । वे कर्म-पुद्गल शीत, उष्ण, डांस, मच्छर आदि से युक्त स्थान म
और दुःखोत्पादक शय्या (वसति-उपाश्रय) में तथा दुःखकारक निषद्या (स्वाध्याय भूमि ) में दुःखोत्पादक रूप से परिणत होते हैं । दुःख जीवों को ही होता है, अजीवों को नहीं । इसलिए यह निश्चित है कि दुःख के हेतुभूत कर्मों को जीवों ने ही मंचित किया हैं । वे कर्म पुद्गल आतङ्क (रोग) रूप से, संकल्प (भयादि विकल्प) रूप से और मरणान्त (उपघातादि) रूप से अर्थात् रोगादि जनक असातावेदनीय रूप से परिणत होते हैं और वे वध के हेतुभूत होते हैं । वध जीव का ही होता है । अतः वध के हेतुभूत असातावेदनीय पुद्गल जीवकृत हैं । अतः ऐसा कहा गया है कि-कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते ।
॥ सोलहवें शतक का द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥
शतक १६ उद्देशक ३
कर्म-बन्ध
१ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-कइ णं भंते ! कम्म
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org