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भगवती सूत्र-स. १३ उ. ४ नरकावामों की एक दूसरे में विशालता
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ॐ सेवं भंते ! मेवं भंते ! ति *
॥ तेरसममए तईओ उद्देसो समत्तो । कठिन शब्दार्थ-णिम्वत्तणया-निर्वर्तना (शरीर की उत्पनि) ।
भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! नैयिक जीव, उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त होकर अनन्तराहारी (तुरन्त आहार करने वाले) होते हैं और इसके बाद निर्वर्तना (शरीर की उत्पत्ति) करते हैं ? (इसके बाद लोमाहारादि द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करते हैं ? इसके बाद पुद्गलों को इन्द्रियादि रूप में परिणत करते हैं ? ) इसके बाद परिचारणा (शब्दादि विषयों का उपभोग करते हैं ? और इसके बाद अनेक प्रकार के रूपों की विकुर्वणा) करते हैं ?
१ उत्तर-हाँ गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से करते हैं । इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र का ३४ वा परिचारणा पद सम्पूर्ण कहना चाहिये।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं।
॥ तेरहवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥
शतक १३ उद्देशक ४ • नरकावासों की एक दूसरे से विशालता
१ प्रश्र-कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? १ उत्तर-गोयमा ! सत्त पुटवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रयण.
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