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भगवती सूत्र-श. १३ उ. ३ नै रयिक के अनन्तराहारादि
यह विशेषता है कि अनुत्तर-विमानों के तीनों आलापकों में मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि का कथन नहीं करना चाहिये, शेष सभी वर्णन पूर्ववत् है ।
१५ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेशी, नोललेशी यावत् शुक्ललेशी (से परिवर्तित) होकर जीव कृष्णलेशी देवों में उत्पन्न होते हैं ?
१५ उत्तर-हाँ, गौतम ! जिस प्रकार प्रथम उद्देशक में नैरयिकों के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये । नीललेशी यावत् पद्मलेशी के विषय में भी उसी प्रकार कहना चाहिये। शुक्ल लेश्या के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए किन्तु विशेषता यह है कि लेश्या के स्थान विशुद्ध होते. होते शुक्ललेश्या में परिणत होते हैं। शुक्ललेश्या में परिणत होने के बाद वे जीव शुक्ललेशी देवों में उत्पन्न होते हैं। इस कारण हे गौतम ! 'उत्पन्न होते हैं'-ऐसा कहा गया है। . . हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐमा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं।
विवेचन-पांच अनुत्तर विमानों में केवल सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं । इसलिये वहाँ मिथ्यादृष्टि और सम्धमिथ्यादृष्टि का निषेध किया गया है ।
॥ तेरहवें शतक का द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥
शतक १३ उद्देशक ३
नैरयिक के अनन्तराहारादि
१ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! अणंतराहारा, तओ णिवत्तणया ? १ उत्तर-एवं परियारणापदं णिरवसेसं भाणियव्वं ।
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