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________________ भगवती मूत्र-श. १: उ. १ नरकावानों की संख्या विस्तारादि २१४१ जीव उत्पन्न नहीं होते । जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात काय-योगो जीव उत्पन्न होते हैं ? इसी प्रकार साकारोपयोग वाले और अनाकारोपयोग वाले जीवों के विषय में भी कहना चाहिये। विवेचन-रत्नप्रभा पध्वी में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में ऊपर ३९ प्रश्न किये गये हैं। उनमें से बहुत से शब्दों का अर्थ स्पष्ट ही है। कुछ शब्दों का अर्थ और स्पष्टीकरण यहां दिया जाता है । कृष्ण, नील आदि लेश्याएं हैं। उनमें मे रत्नप्रभा पृथ्वी में केवल कापोत लेण्या वाले जीव ही उत्पन्न होते हैं, कृष्ण लेण्यादि वाले नहीं । इसलिये कापोत लेश्या वाले जीवों के विषय में ही प्रश्न किया गया है । कृष्णपाक्षिक और शुक्ल. पाक्षिक का अर्थ इस प्रकार है जेलिमवड्ढोपोग्गलपरियट्टो, सेसओ उ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खल, अहिगे पुण कण्हपक्खिया । अर्थ-जीव का संसार परिभ्रमण काल जब अर्द्ध पुद्गल परावर्तन शेष रह जाता है तब से वह 'शुक्ल पाक्षिक' कहलाता है । इससे अधिक काल तक जिन जीवों का मंमार में परिभ्रमण करना गेप रहता है, वे 'कृष्णपाक्षिक' कहलाते हैं। 'चक्षुदर्शनी' के उत्पन्न होने का जो निषेध किया है, इसका कारण यह है कि इंद्रियों के त्यागपूर्वक ही उत्पत्ति होती है । इस पर यदि यह शंका की जाय कि 'फिर अचक्षुदर्शनी कैसे उत्पन्न होते हैं ?' समाधान-इन्द्रिय और मन के सिवाय सामान्य उपयोग मात्र को भी 'अवक्षुदर्शन' कहते हैं । ऐसा 'अवक्षुदर्शन' उत्पत्ति के समय में भी होता है । इस अपेक्षा से 'अचक्षुदर्शनी' उत्पन्न होते है-ऐसा कहा गया है। नरक में स्त्री-वेदी और पुरुष-वेदी उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि उनके भवप्रत्यय नपुंसकवेद होता है। श्रोत्रादि इन्द्रियों के उपयोग वाले उत्पन्न नहीं होते. क्योंकि उस समय इन्द्रियाँ नहीं होती। सामान्य उपयोग अर्थात् चेतनारूप उपयोग इन्द्रियों के अभाव में भी रह सकता है । इसलिये 'नोइन्द्रियोपयुक्त उत्पन्न होते हैं'-ऐसा कहा गया है। उत्पत्ति के समय अपर्याप्त होने से मन और वचन, इन दोनों का अभाव है। इसलिए ऐसा कहा गया है कि-'मन-योगी और वचन-योगी उत्पन्न नहीं होते ।' सभी सयोगी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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