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________________ भगवती सूत्र-दा. १३ उ. ४ धर्मास्तिकायादि की रूपातीत व्यापकता २२२१ कदाचित् एक, दो, यावत् कदाचित् असख्यात प्रदेश अबगाढ़ होते हैं, अनन्त नहीं, क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और लोकाकाग के अनन्त प्रदेश नहीं होते, असंध्य ही होते हैं। जहां समस्त धर्मास्तिकाय द्रव्य अवगाट होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय का अन्य एक. प्रदेश भी अवगाढ़ नहीं होता । क्यों कि उनके प्रदेशान्तर नहीं है । अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के असंख्य प्रदेश अवगाढ़ होते हैं । क्यो कि इनके असंख्य प्रदेश होते हैं । जीवास्तिकाय, पुद्गलास्किाय और अद्धा-समय के अनन्त होते हैं। पृथ्वीकायिकादि के कथन से 'जीवावगाढ़ द्वार' का कथन किया गया है । जहाँ एक पृथ्वीका यिक जीव अवगाद है, वहाँ पृथ्वीकायिकः आदि चारो काय के अमंन्य मूक्ष्म जीव अवगाढ़ हैं और वनस्पतिकाय के अनन्त । इसी प्रकार पांचों कायों के विषय में समझना चाहिए। धर्मास्तिकायादि की रूपातीत व्यापकता ४४ प्रश्न-एयंसि णं भंते ! धम्मस्थिकाय अधम्मस्थिकाय. आगासत्थिकायंसि चक्किया केई आसइत्तए वा चिट्टित्तए वा णिसिय. तए वा तुयट्टित्तए वा ? ४४ उत्तर-णो इणटे समटे, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'एयंसि णं धम्मत्थि० जाव आगासस्थिकायंसि णो चक्किया केई आसइत्तए वा जाव ओगाढा ? उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए-क्रूडागारसाला सिया, दुहओ लित्ता, गुत्ता, गुत्तदुवारा, जहा रायप्पसेणइज्जे, जाव दुवारवयणाई पिहेइ, दुवारवयणाई पिहेत्ता तीसे कूडागारसालाए वहुमज्झदेसभाए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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