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भगवती मूत्र--1. १६ उ. . धमास्नियादि की रूपातीत व्यापक ना
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जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं पईवसहरसं पली. वेजा, से णूणं गोयमा ! ताओ पईवलेस्साओ अण्णमण्णसंबद्धाओ अण्णमण्णपुट्ठाओ जाव अण्णमण्णघडताए चिटुंति ? हंता चिट्ठति । चक्किया णं गोयमा ! कई तासु पईवलेस्सासु आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा ? भगवं ! णो इणटे समटे । अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जाव ओगाढा ।
कठिन शब्दार्थ-एयंसि-यह, चक्किया-समर्थ हो सकता है ।
भावार्थ-४४ प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय पर कोई पुरुष ठहरने में, खड़ा रहने में, नीचे बैटने में और सोने में समर्थ हो सकता है ? '
४४ उत्तर-नहीं, गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । उस स्थान पर अनन्त जीव अवगाढ़ होते हैं।
प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है इसका ? ___ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार कोई कूटागारशाला हो, वह भीतर और बाहर से लीपी हुई और चारों ओर से ढकी हुई हो, उसके द्वार भी बन्द हों, इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्रानुसार जानना चाहिये । उस कूटागारशाला के द्वार के कपाटों को बन्द कर के उसके ठीक मध्यभाग में जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट एक हजार दीपक जलावे, तो हे गौतम ! क्या उस समय उन दीपकों का प्रकाश परस्पर मिल कर तथा परस्पर स्पर्श कर एक दूसरे के साथ एकमेक हो जाता है ? हां, भगवन् ! एक रूप हो जाता है । हे गौतम ! उन दीपकों के उस प्रकाश पर क्या कोई पुरुष ठहर सकता है यावत् सो सकता है ? नहीं भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं। उस प्रकाश में अनन्त जीव रहे हुए हैं, इसलिये हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि यावत् धर्मास्तिकाय में
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