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भगवती सूत्र -श. १३३. १ तरकावालों का तस्था विस्तारादि
वाससय सहस्सेसु असंखेज्जवित्थडेसु णरएस एगसमएणं जहणेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उनकोसेणं असंखेज्जा रइया उववज्जति । एवं जहेव संखेज्ज वित्थडेसु तिष्णि गमगा तहा असंखेज्ज - वित्थडे वितिणि गमगा भाणियव्वा णवरं अमंखेजा भाणियव्वा, सेसं तं चैव, जाव असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता, णवरं संखेज वित्थडे वि असंखेज्जवित्थडेसु वि ओहिणाणी ओहिदंसणी य संखेज्जा उब्वट्टावेयव्वा सेसं तं चैव ।
कठिन शब्दार्थ-गमगा- गमक, आलापक ।
भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में एक समय में कितने नैरथिक उत्पन्न होते हैं ? यावत् कितने अनाकारोपयोग वाले नरि उत्पन्न होते हैं ?
७ उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में एक समय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट असंख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं । जिस प्रकार संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में उत्पाद, उद्वर्तन और सत्ता ( विद्यमानता) ये तीन आलापंक कहे गये हैं, उसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में भी तीन आलापक कहने चाहिए। इनमें यह विशेषता है कि यहाँ संख्यात के स्थान पर 'असंख्यात' पाठ कहना चाहिए। शेष सब पहिले के समान कहना चाहिए। यावत् 'असंख्यात अचरम नैरयिक कहे गये हैं । इनमें विशेषता यह है कि संख्यात योजन और असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी 'संख्यात हो उद्वर्तते है ' - कहना चाहिए । शेष सब पहले के समान कहना चाहिए ।
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