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भगवती मृत्र-7 . १४ उ. ५ चरम-परम के मध्य को गति
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लेश्यावाला जो देवावास है, वहां उसकी गति होती है, वहां उसका उपपात होता है । वहाँ जाकर यह अनगार यदि पूर्व-लेश्या को छोड़ता है, तो कर्म-लेश्या (भावलेल्या) से ही गिरता है और यदि वहां जाकर उस लेश्या को नहीं छोड़ता है, तो वह उसी लेश्या का आश्रय कर रहता है।
३ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई भावितात्मा अनगार जो चरम असुरकुमारावास का उल्लंघन कर गया और परम असुरकुमारावास को प्राप्त नहीं हुआ, यदि इसके बीच में ही वह काल कर जाय, तो कहां जाता है, कहां उत्पन्न होता है ?
३ उत्तर-हे गौतम ! इसी प्रकार जानना चाहिये और इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारावास, ज्योतिष्कावास और वंमानिकावास पर्यन्त-यावत् 'विचरते है' तक कहना चाहिये ।
विवेचन-उपर्युक्त प्रश्न का आशय यह है कि कोई भावितात्मा अनगार, जो लेश्या के उत्तरोनर प्रशस्त अध्यवसाय स्थानों में वर्तता है, वह पूर्ववर्ती सौधर्मादि देवलोकों में उत्पन्न होने योग्य स्थिति-बन्ध आदि का उल्लंघन कर गया और परम (ऊपर रहे हुए) सनत्कुमारादि देवलोकों में उत्पन्न होने योग्य स्थिति-बन्ध आदि अध्यवसाओं को प्राप्त नहीं हुआ, इसके बीच में ही यदि काल कर जाय, तो कहां उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर यह दिया गया है कि चरम देवावास और परम देवावास के पाम रहे हुए, उस लेश्या वाले देवावासों में उत्पन्न होता हैं । आशय यह है कि सौधर्मादि देवलोक और सनत्कुमारादि देवलोकों के पास में जो ईशान आदि देवलोक हैं, उनमें जिस लेश्या में वह अनगार काल करता है, उन्हीं लेश्यावाले देवावासों में उत्पन्न होता है । क्योंकि कहा है
"जल्लेसे मरइ जोवे, तल्लेसे चेव उववज्जह" अर्थात्जीव, जिस लेश्या में काल करता है, उसी लेश्या में उत्पन्न होता है। • वहां उत्पन्न होने के बाद यदि परिणामों की विराधना करता है, तो भावलेश्या स गिर जाता है अर्थात् शुभभाव लेश्या से गिर कर अशुभभाव लेश्या में चला जाता है, क्योंकि देव और नैरयिक, द्रव्य-लेण्या से नहीं गिरते, किन्तु भाव-लेश्या से गिरते है । उनकी द्रव्य-लेण्या अवस्थित होती।
चरम और परम देवावासों के मध्यम देवावास में यदि उन परिणामों की विराधना
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