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भगवती मूत्र-१. १६ उ. ४ नयिकों की निगरा की श्रमणों से तुलना
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के पिछले भाग में कायोत्सर्ग नहीं होने से हस्तादि अवयवों को संकुचित करना ओर फैलाना कल्पना है । कायोत्सर्ग में रहे हुए उन भावितात्मा अनगार की नासिका में अर्श लटकता हो और उस देख कर कोई वैद्य उम माध को भूमि पर मुला कर अर्श को काटे, तो उस वैद्य में धर्म वृद्धि होने मे उस मत्कार्य में प्रवृति रूप शुभ क्रिया लगती है और साधु निापार हाने से उमको शुभ क्रिया भी नहीं लगती, परन्तु शुभ-ध्यान का विच्छेद (अन्तराय) होने से एव अशं छदन का अनुमोदन करने मे उसे धर्मान्तराय होती है ।
॥ सोलहवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥
शतक १६ उद्देशक ४
नैरयिकों की निजरा की श्रमणों से तुलना
१ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-जावइयं णं भंते ! अण्ण. गिलायए समणे णिग्गंथे कम्मं णिजरेइ एवइयं कम्मं णरएसु णेरइया वासेण वा वासेहिं वा वाससएण वा (वाससएहिं वा) खवयंति ?
१ उत्तर-णो इणटे समटे ।
२ प्रश्न-जावइयं णं भंते ! चउत्थभत्तिए समणे णिग्गंथे कम्मं णिजरेइ एवइयं कम्मं णरएसु णेरड्या वाससरण वा वास
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