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भगवती सूत्र-श. १६ उ. ३ अशं छेदन में लगने वाली क्रिया
कठिन शब्दार्थ-अवड्ढे-अपार्द्ध-अर्द्धदिवस ।
भावार्थ-३ किसी दिन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशीलक उद्यान से निकल कर बाहर दूसरे देशों में विहार करने लगे। उस काल उस समय में उल्लुक तीर नामक नगर था (वर्णन) :::.: उल्लुक तीर नगर के बाहर ईशान कोण में 'एकजम्बक' नामक उद्यान (वर्णन) । श्रमण भगवान महावीर स्वामी अनुक्रम से विचरते हुए यावत् किसी दिन एकजम्बूक नाम उद्यान में पधारे यावत् परिषद् लौट गई । इसके पश्चात् 'हे भगवन् !' ऐसा कर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार पूछा
४ प्रश्न-हे भगवन् ! निरन्तर छठ-छठ के तपपूर्वक यावत् आतापना लेते हुए भावित्मा अनगार को दिवस के पूर्वभाग में अपने हाथ, पैर यावत् उरु (जंघा) को संकोचना या फैलाना नहीं कल्पता है और दिन के पश्चिम भाग में हाथ, पैर यावत् उरु को संकोचना और फैलाना कल्पता है ? इस प्रकार कायोत्सर्ग में रहे हुए भावितात्मा अनगार की नासिका में अर्श (मस्सा) लटकता हो, उस अर्श को देख कर कोई वैद्य उसे काटने के लिये उस ऋषि को भूमि पर सुलावे और उसके अर्श को काटे, तो हे भगवन् ! अर्श काटने वाले उस वैद्य को क्रिया लगती है या जिसका अर्श काटा जा रहा है, उस ऋषि को धर्मान्तराय रूप क्रिया के सिवाय दूसरो भी क्रिया लगती है ?
४ उत्तर-हां, गौतम ! जो काटता है, उसे (शुभ) क्रिया लगती है और जिसका अर्श काटा जाता है, उसे धर्मान्तराय के सिवाय दूसरी कोई क्रिया नहीं लगती।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन-निरन्तर बेले-बेले के तपपूर्वक आतापना लेते हुए भावितात्मा अनगार को कायोत्सर्ग का अभिग्रह होने से, कायोत्सर्ग की अवस्था में रहे हुए होने के कारण दिन के पूर्व भाग में हस्त आदि अवयवों का संकोचना और पसारना नहीं कल्पना है। किन्तु दिन
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