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भगवती मूत्र-श. १४ उ. ६ नैरयिकादि के आहारादि
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__कठिन शब्दार्थ-चीइदव्वाइं-कुछ कम द्रव्य (एक या इससे अधिक प्रदेश कम आहार द्रव्य) ।
भावार्थ-१ प्रश्न-राजगह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा - "हे भगवन् ! नैरयिक जीव किन द्रव्यों का आहार करते हैं ? किस तरह परिणमाते हैं। उनकी क्या योनि है और उनकी स्थिति का क्या कारण कहा गया है ?
१ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक जीव पुद्गलों का आहार करते हैं और उसका पुद्गल रूप परिणाम होता है। उनकी योनि शीत-उष्ण स्पर्शवाली है। आयुष्य कर्म के पुद्गल उनकी स्थिति का कारण है । बन्ध द्वारा वे कर्म को प्राप्त हुए हैं। नैरयिकपने के निमित्तभूत कर्म वाले हैं। कर्म-पुदगल से उनकी स्थिति है और कर्मों के कारण वे अन्य पर्याय को प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना चाहिये।
२ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव, वीचि द्रव्यों का आहार करते हैं या अवीचि द्रव्यों का ?
उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक जीव, वीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं और अवीचि द्रव्यों का भी। . प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ?
उत्तर-हे गौतम ! जो नैरयिक, एक प्रदेश भी न्यून द्रव्यों का आहार करते हैं, वे बीचि द्रव्यों का आहार करते हैं और जो परिपूर्ण द्रव्यों का आहार करते हैं, वे अवीचि द्रव्यों का आहार करते हैं। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि नरयिक जीव, वीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं और अवीचि द्रव्यों का भी । इसी प्रकार यावत् 'वैमानिक' तक कहना चाहिये ।
विवेचन-जितने पुद्गलों से सम्पूर्ण आहार होता है, उसे 'अवीचि द्रव्य' कहते हैं । सम्पूर्ण आहार से एक प्रदेश भी कम आहार हो, उसे 'वीचि द्रव्य' कहते हैं ।
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