________________
२५७८
भगवती सूत्र-श. १६ उ. ८ लोक के अन्त में जाव का अस्तित्व
के दो भंग होते हैं। इस प्रकार द्विक-संयोगो चोदह भंग होते हैं । इसा प्रकार प्रदेश भगों में असंयोगी एक और ट्रिक-संयोगी दस भंग होते हैं ।
लोक के ऊपर के चरमान्त में सिद्ध हैं। इसलिय वहाँ एकेन्द्रियों के देश और अनिन्द्रियों के देश होते हैं । इसलिये यह असंयोगी एक भंग होता है । द्विक-संयोगी दो-दो भंग कहने चाहिये, क्योंकि 'एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के देश तथा एक बेइन्द्रिय के देश' यह बीच का भंग घटित नहीं होता । क्योंकि कोई भी बेइन्द्रिय मरण-समदघात द्वारा मर कर ऊपर के चरमान्त में रहे हुए एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न हो, तो भी प्रदेश की हानिवृद्धि से होने वाला लोक-दन्तक (विषम भाग) नहीं होने से पूर्व चरमान्त के समान वहाँ बेइन्द्रिय के अनेक देश सम्भवित नहीं होते। पूर्व चरमान्त में तो प्रदेश को हानि-वृद्धि से होने वाला अनेक प्रतरात्मक लोक-दन्तक होने के कारण वहाँ बेइन्द्रिय जीवों के अनेक देश संभवित होते हैं । इसलिये ऊपर के चरमान्त में मध्यम भंग रहित द्विक-संयोगी दो-दो भग यावत् पञ्चेन्द्रिय तक जानने चाहिये।
___ 'एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के प्रदेश एवं बेइन्द्रिय का एक प्रदेश' यह प्रथम भंग नहीं कहना चाहिये, क्योंकि वे इन्द्रिय का एक प्रदेश' असम्भव है, क्योंकि केवली. समुद्घात के समय लोकव्यापक अवस्था के अतिरिक्त जहाँ किसी भी जीव का एक प्रदेश होता है, वहाँ नियमतः उसके असंख्यात प्रदेश होते हैं।
एकेन्द्रिय जीव तो लोक में सर्वत्र हाते ही हैं ओर अनिन्द्रिय (सिद्ध)लोक के ऊपर के चरमान्त में नित्य मिलते ही हैं। अतः एकेन्द्रिय और अनिन्द्रिय-दोनों को साथ असंयोगा आदि भंगों में लिये गये है । इसलिये यहाँ देश और प्रदेश आश्रयी भंगों में असंयोगी एक और द्विक-संयोगी आठ, ये नव-नव भंग होते हैं।
जिस प्रकार दसवें शतक के प्रथम उद्देशक में तमा-दिशा के विषय में अजीवों की वक्तव्यता कही गई, उसी प्रकार ऊपर के चरमान्त के विषय में भी कहनी चाहिये । यथारूपी अजीव के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु पुद्गल, ये चार भेद और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेश, ये अरूपी के छह भेद, इस प्रकार अजीव के दस भेद होते हैं।
नीचे के चरमान्त में 'एकेन्द्रियों के बहुत देश' यह असंयोगी एक ही भंग बनता है और द्विक-संयोगी वेइन्द्रिय के साथ दो भंग होते हैं । यथा-१ एकेन्द्रियों के बहुत देश और इन्द्रिय का एक देश । २ एकेन्द्रियों के बहुत देश और बेइन्द्रियों के वहुत देश । 'एकेन्द्रियों
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org