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भगवती सूत्र-श. १५ सिंह अनगार का शोक
कच्छगस्स अदूरसामंते छटुंछटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाओ जाव विहरइ। तएणं तस्स सीहस्स अणगारस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-'एवं खलु ममं धम्मायरियम्स धम्मोवएसगस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायंके पाउन्भूए, उज्जले जाव छउमत्थे चेव कालं करिस्सइ, वदिस्संति य णं अण्णतित्थिया--'छउमत्थे चेव कालगए' । इमेणं एयारूवेणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे आयावणभूमिए पच्चोरहह आयावणभूमिओ पच्चोरुहित्ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता मालुयाकच्छगं अंतो २ अणुपविसइ, मालुयाकच्छगं अंतो २ अणुपविसित्ता महया महया सदेणं कुहुकुहुस्स परुण्णे । ____ कठिन शब्दार्थ-माणंतरियाए-ध्यानान्तर-एक ध्यान पूरा होने के बाद और दूसरा ध्यान प्रारम्भ होने के पूर्व, कुहुकुहस्स परुणे-'कुहुकुहु' शब्द (हृदय में दुःख न समाने से फूट फूट) कर रोते हुए।
भावार्थ-श्रमण भगवान महावीर स्वामी के अन्तेवासी 'सिंह' नाम के अनगार थे। वे प्रकृति से भद्र और विनीत थे । वे मालका कच्छ के निकट निरन्तर बेला-बेला के तप से दोनों हाथों को ऊपर उठा कर यावत् आतापना लेते थे। जब सिंह अनगार एक ध्यान को समाप्त कर दूसरा ध्यान प्रारंभ करने वाले थे, उस समय उन्हें विचार उत्पन्न हुआ-"मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक भगवान् महावीर स्वामी के शरीर में अत्यन्त दाहक और महापीडाकारी रोग उत्पन्न हुआ है, इत्यादि यावत् वे छद्मस्थ अवस्था में काल करेंगे, तब अन्यतीथिक कहेंगे कि 'वे छद्मस्थ अवस्था में काल-धर्म को प्राप्त हो गये,"-इस प्रकार के महा मानसिक
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