________________
२३०८
भगवती सूत्र-श १४ उ. ८ अम्बड़ परिवाजक
सत्त अंतेवासीसया गिम्हकालसमयंसि० एवं जहा उववाइए. जाव आराहगा।
१६-बहुजणे णं भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइक्वइ, एवं खल अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए, एवं जहा उववाइए अम्मडस्स वत्तव्वया जाव दड्ढप्पइण्णो अंतं काहिति ।
कठिन शब्दार्थ-वत्तव्वया-वक्तव्यता, काहिति-करेंगे ।
भावार्थ-१५ उस काल उस समय अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ शिष्य, ग्रीष्म-काल में विहार करते थे, इत्यादि औपपातिक सूत्रानुसार, यावत् 'वे आराधक हुए'-तक कहना चाहिये।
१६-हे भगवन् ! बहुत से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहते हैं कि , 'अम्बड़ परिव्राजक' कम्पिलपुर में सौ घरों में भोजन करता है, इत्यादि औप, पातिक सूत्र की अम्बड़ सम्बन्धी वक्तव्यता, यावत् महद्धिक दृढ़प्रतिज्ञ होकर '. सभी दुःखों का अन्त करेगा।
विवेचन-एक ममय-ग्रीष्म काल में अम्बड़ परिव्राजक के सात सो शिष्य, गंगा नदी के दोनों किनारों पर आए हए कम्पिलपूर नगर से पुग्मिताल नगर की ओर जा रहे थे। जब उन्होंने अटवी में प्रवेश किया, तब साथ में लिया हुआ पानी समाप्त हो गया। वे तृषा । से पीड़ित हुए । पास ही गंगा नदी में निर्मल जल बह रहा था, किंतु अदत्त ग्रहण न करने की उनकी प्रतिज्ञा थी। वे पानी लेने की आज्ञा देने वाले किसी पुरुष की खोज करने लगे। खोज करने पर भी उन्हें आजा देने वाला कोई पुरुष नहीं मिला। वे तृपा से अत्यन्त व्याकुल हुए । उनके प्राण संकट में पड़ गये । अन्त में अरिहन्त भगवान् को नमस्कार, करके उन सभी ने गंगा नदी के किनारे ही संथारा कर दिया और काल करके ब्रह्म देवलोक में उत्पन्न हए । वे सभी परलोक के आराधक हुए हैं।
वैक्रिय-लब्धि के प्रभाव से लोगों को विस्मित करने के लिये अम्बड़ परिव्राजक सो घरों में रहता हुआ, मो घरों में भोजन करता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org